रस

रस’ शब्द की व्युत्पत्ति एवं अर्थ संस्कृत में ‘रस’ शब्द की व्युत्पत्ति ‘रसस्यते असो इति रसाः’ के रूप में की गई है; अर्थात् जिसका आस्वादन किया जाए, वही रस है; परन्तु साहित्य में काव्य को पढ़ने, सुनने या उस पर आधारित अभिनय देखने से जो आनन्द प्राप्त होता है, उसे ‘रस’ कहते हैं।

सर्वप्रथम भरतमुनि ने अपने ‘नाट्यशास्त्र’ में रस के स्वरूप को स्पष्ट किया था। रस की निष्पत्ति के सम्बन्ध में उन्होंने लिखा है–

“विभावानुभावव्यभिचारिसंयोगाद्रसनिष्पत्तिः।” अर्थात् विभाव, अनुभाव तथा व्यभिचारी भाव के संयोग से रस की निष्पत्ति होती है। इस प्रकार काव्य पढ़ने, सुनने या अभिनय देखने पर विभाव आदि के संयोग से उत्पन्न होनेवाला आनन्द ही ‘रस’ है।

काव्य में रस का वही स्थान है, जो शरीर में आत्मा का है। जिस प्रकार आत्मा के अभाव में प्राणी का अस्तित्व सम्भव नहीं है, उसी प्रकार रसहीन कथन को काव्य नहीं कहा जा सकता। इस प्रकार रस ‘काव्य की आत्मा ‘ है।

रस के अंग (अवयव)

रस के प्रमुख अंग निम्नलिखित हैं

  1. स्थायी भाव,
  2. विभाव,
  3. अनुभाव,
  4. संचारी अथवा व्यभिचारी भाव।

रस के इन विभिन्न अंगों का विवेचन इस प्रकार किया जा सकता है

1. रस का स्थायी भाव
अर्थ–स्थायी भाव प्रत्येक सहृदय व्यक्ति के हृदय में हमेशा विद्यमान रहते हैं। यद्यपि वे सुप्त अवस्था में रहते हैं, तथापि उचित अवसर पर जाग्रत एवं पुष्ट होकर ये रस के रूप में परिणत हो जाते हैं।

स्थायी भाव एवं उनसे सम्बन्धित रस–एक स्थायी भाव का सम्बन्ध एक रस से होता है। इनकी संख्या नौ है, किन्तु कुछ आचार्यों ने इनकी संख्या ग्यारह निर्धारित की है। ये ग्यारह स्थायी भाव और इनसे सम्बन्धित रसों के नाम इस प्रकार हैं

स्थायी भावरस

  1. रति–शृंगार
  2. हास–हास्य
  3. शोक–करुण
  4. क्रोध–रौद्र
  5. उत्साह–वीर
  6. भय–भयानक
  7. आश्चर्य–अद्भुत
  8. जुगुप्सा, ग्लानि–बीभत्स
  9. निर्वेद–शान्त
  10. वत्सलता–वात्सल्य
  11. देवविषयक रति–भक्ति।

इनमें अन्तिम दो स्थायी भावों (वत्सलता तथा देवविषयक रति) को श्रृंगार के अन्तर्गत सम्मिलित किया गया है। प्रत्येक स्थायी भाव का संक्षिप्त परिचय निम्नलिखित है

  1. रति–स्त्री–पुरुष की एक–दूसरे के प्रति उत्पन्न प्रेम नामक चित्तवृत्ति को ‘रति’ स्थायी भाव कहते
  2. हास–रूप, वाणी एवं अंगों के विकारों को देखने से चित्त का विकसित होना ‘हास’ कहलाता है।
  3. शोक–प्रिय वस्तु (इष्टजन, वैभव आदि) के नाश इत्यादि के कारण उत्पन्न होनेवाली चित्त की व्याकुलता को ‘शोक’ कहते हैं।
  4. क्रोध–असाधारण अपराध, विवाद, उत्तेजनापूर्ण अपमान आदि से उत्पन्न मनोविकार को ‘क्रोध’ कहते हैं।
  5. उत्साह–मन की वह उल्लासपूर्ण वृत्ति, जिसके द्वारा मनुष्य तेजी के साथ किसी कार्य को करने में लग जाता है, ‘उत्साह’ कहलाती है। इसकी अभिव्यक्ति शक्ति, शौर्य एवं धैर्य के प्रदर्शन में होती है।
  6. भय–हिंसक जन्तुओं के दर्शन, अपराध, भयंकर शब्द, विकृत चेष्टा और रौद्र आकृति द्वारा उत्पन्न मन की व्याकुलता को ही ‘भय’ स्थायी भाव के रूप में परिभाषित किया जाता है।
  7. आश्चर्य–अलौकिक वस्तु को देखने, सुनने या स्मरण करने से उत्पन्न मनोविकार ‘आश्चर्य’ कहलाता है।
  8. जुगुप्सा–किसी अरुचिकर या मन के प्रतिकूल वस्तु को देखने अथवा उसकी कल्पना करने से जो भाव उत्पन्न होता है, वह ‘जुगुप्सा’ कहलाता है।
  9. निर्वेद–सांसारिक विषयों के प्रति वैराग्य की उत्पत्ति ‘निर्वेद’ कहलाती है।
  10. वत्सलता–माता–पिता का सन्तान के प्रति अथवा भाई–बहन का परस्पर सात्त्विक प्रेम ही ‘वत्सलता’ कहलाता है।
  11. देव–विषयक रति–ईश्वर में परम अनुरक्ति ही ‘देव–विषयक रति’ कहलाती है।

रस–निष्पत्ति में स्थायी भाव का महत्त्व–स्थायी भाव ही परिपक्व होकर रस–दशा को प्राप्त होते हैं; इसलिए रस–निष्पत्ति में स्थायी भाव का सबसे अधिक महत्त्व है। अन्य सभी भाव और कार्य स्थायी भाव की पुष्टि के लिए ही होते हैं।

2. रस का विभाव
अर्थ–जो कारण (व्यक्ति, पदार्थ आदि) दूसरे व्यक्ति के हृदय में स्थायी भाव को जाग्रत तथा उद्दीप्त करते हैं, उन्हें ‘विभाव’ कहते हैं।

विभाव के भेद–’विभाव’ आश्रय के हृदय में भावों को जाग्रत करते हैं और उन्हें उद्दीप्त भी करते हैं। इस आधार पर विभाव के निम्नलिखित दो भेद हैं

  1. आलम्बन विभाव–जिस व्यक्ति अथवा वस्तु के कारण कोई भाव जाग्रत होता है, उस व्यक्ति अथवा वस्तु को उस भाव का ‘आलम्बन विभाव’ कहते हैं।
  2. उद्दीपन विभाव–स्थायी भावों को उद्दीप्त तथा तीव्र करनेवाला कारण ‘उद्दीपन विभाव’ कहलाता है। आलम्बन की चेष्टा तथा देश–काल आदि को ‘उद्दीपन विभाव’ माना जाता है।

रस–निष्पत्ति में विभाव का महत्त्व–हमारे मन में रहनेवाले स्थायी भावों को जाग्रत करने तथा उद्दीप्त करने का कार्य विभाव द्वारा होता है। जाग्रत तथा उद्दीप्त स्थायी भाव ही रस का रूप प्राप्त करते हैं। इस प्रकार रस–निष्पत्ति में विभाव का अत्यधिक महत्त्व है।

3. रस का अनुभाव

अर्थ–आश्रय की चेष्टाओं अथवा रस की उत्पत्ति को पुष्ट करनेवाले वे भाव, जो विभाव के बाद उत्पन्न होते हैं, ‘अनुभाव’ कहलाते हैं। भावों को सूचना देने के कारण ये भावों के ‘अनु’ अर्थात् पश्चात्वर्ती माने जाते हैं।

अनुभाव के भेद–अनुभावों के मुख्य रूप से निम्नलिखित चार भेद किए गए हैं

  1. कायिक अनुभाव–प्रायः शरीर की कृत्रिम चेष्टा को ‘कायिक अनुभाव’ कहा जाता है।
  2. मानसिक अनुभाव–मन में हर्ष–विषाद आदि के उद्वेलन को ‘मानसिक अनुभाव’ कहते हैं।
  3. आहार्य अनुभाव–मन के भावों के अनुसार अलग–अलग प्रकार की कृत्रिम वेश–रचना करने को ‘आहार्य अनुभाव’ कहते हैं।
  4. सात्त्विक अनुभाव हेमचन्द्र के अनुसार ‘सत्त्व’ का अर्थ है ‘प्राण’। स्थायी भाव ही प्राण तक पहुँचकर ‘सात्त्विक अनुभाव का रूप धारण कर लेते हैं।

रस–निष्पत्ति में अनुभावों का महत्त्व–स्थायी भाव जाग्रत और उद्दीप्त होकर रस–दशा को प्राप्त होते हैं। अनुभावों के द्वारा इस बात का ज्ञान होता है कि आश्रय के हृदय में रस की निष्पत्ति हो रही है अथवा नहीं। इसके साथ ही अनुभावों का चित्रण काव्य को उत्कृष्टता प्रदान करता है।

4. रस का संचारी अथवा व्यभिचारी भाव

अर्थ–जो भाव, स्थायी भावों को अधिक पुष्ट करते हैं, उन सहयोगी भावों को ‘संचारी भाव’ कहा जाता है। भरतमुनि ने संचारी भावों का स्पष्टीकरण करते हुए कहा है कि ये वे भाव हैं, जो रसों में अनेक प्रकार से विचरण करते हैं तथा रसों को पुष्ट कर आस्वादन के योग्य बनाते हैं। जिस प्रकार समुद्र में लहरें उत्पन्न होती हैं और उसी में विलीन हो जाती हैं, उसी प्रकार स्थायी भाव में संचारी भाव उत्पन्न और विलीन होते रहते हैं।

संचारी भावों के भेद आचार्यों ने संचारी भावों की संख्या 33 निश्चित की है, जिनके नाम इस प्रकार हैं

  • निर्वेद
  • आवेग
  • दैन्य
  • श्रम
  • मद
  • जड़ता
  • उग्रता
  • मोह
  • विबोध
  • स्वप्न
  • अपस्मार
  • गर्व
  • मरण
  • आलस्य
  • अमर्ष
  • निद्रा
  • अवहित्था
  • उत्सुकता
  • उन्माद
  • शंका
  • स्मृति
  • मति
  • व्याधि
  • सन्त्रास
  • लज्जा
  • हर्ष
  • असूया
  • विषाद
  • धृति
  • चपलता
  • ग्लानि
  • चिन्ता
  • वितर्क।

रस–निष्पत्ति में संचारी भावों का महत्त्व–संचारी भाव स्थायी भाव को पुष्ट करते हैं। वे स्थायी भावों को इस योग्य बनाते हैं कि उनका आस्वादन किया जा सके। यद्यपि वे स्थायी भाव को पुष्ट कर स्वयं समाप्त हो जाते हैं, तथापि ये स्थायी भाव को गति एवं व्यापकता प्रदान करते हैं।

श्रृंगार रस – Shringar Ras अर्थ–नायक और नायिका के मन में संस्कार रूप में स्थित रति या प्रेम जब रस की अवस्था को पहुँचकर आस्वादन के योग्य हो जाता है तो वह ‘श्रृंगार रस’ कहलाता है।

श्रंगार रस के अवयव (उपकरण)

  1. स्थायी भाव–रति।
  2. आलम्बन विभाव–नायक और नायिका।
  3. उद्दीपन विभाव–आलम्बन का सौन्दर्य, प्रकृति, रमणीक उपवन, वसन्त–ऋतु, चाँदनी, भ्रमर–गुंजन, पक्षियों का कूजन आदि।
  4. अनुभाव–अवलोकन, स्पर्श, आलिंगन, कटाक्ष, अश्रु आदि।
  5. संचारी भाव–हर्ष, जड़ता, निर्वेद, अभिलाषा, चपलता, आशा, स्मृति, रुदन, आवेग, उन्माद आदि।

श्रृंगार के भेद–श्रृंगार के दो भेद हैं–संयोग श्रृंगार तथा वियोग या विप्रलम्भ श्रृंगार। इनका विवेचन निम्नलिखित है
(i) संयोग श्रृंगार–संयोगकाल में नायक और नायिका की पारस्परिक रति को ‘संयोग श्रृंगार’ कहा जाता है। यहाँ संयोग का अर्थ है–सुख की प्राप्ति करना।

श्रृंगार रस के उदाहरण : Example Of Shringar Ras In Hindi

दूलह श्रीरघुनाथ बने दुलही सिय सुन्दर मन्दिर माहीं।
गावति गीत सबै मिलि सुन्दरि बेद जुवा जुरि बिप्र पढ़ाहीं॥
राम को रूप निहारति जानकि कंकन के नग की परछाहीं।
यातें सबै सुधि भूलि गई कर टेकि रही, पल टारत नाहीं॥

तुलसीदास स्पष्टीकरण–इस पद में स्थायी भाव ‘रति’ है। ‘राम’ आलम्बन, ‘सीता’ आश्रय, नग में पड़नेवाला राम का ‘प्रतिबिम्ब’ उद्दीपन, ‘उस प्रतिबिम्ब को देखना, हाथ टेकना’ अनुभाव तथा ‘हर्ष एवं जड़ता’ संचारी भाव हैं। अतः इस पद में संयोग श्रृंगार है।

(ii) वियोग या विप्रलम्भ श्रृंगार–एक–दूसरे के प्रेम में अनुरक्त नायक एवं नायिका के मिलन के अभाव को ‘विप्रलम्भ शृंगार’ कहा जाता है।

उदाहरण–
रे मन आज परीक्षा तेरी !
सब अपना सौभाग्य मनावें।
दरस परस निःश्रेयस पावें।
उद्धारक चाहें तो आवें।
यहीं रहे यह चेरी !

मैथिलीशरण गुप्त

स्पष्टीकरण–इसमें स्थायी भाव ‘रति’ है। ‘यशोधरा’ आलम्बन है। उद्धारक गौतम के प्रति यह भाव कि वे चाहें तो आवे’ उद्दीपन विभाव है। ‘मन को समझाना और उद्बोधन’ अनुभाव है, ‘यशोधरा का प्रणय’ मान है तथा मति, वितर्क और अमर्ष संचारी भाव हैं; अतः इस छन्द में विप्रलम्भ श्रृंगार है। ‘

हास्य रस – Hasya Ras अर्थ–वेशभूषा, वाणी, चेष्टा आदि की विकृति को देखकर हृदय में विनोद का जो भाव जाग्रत होता है, उसे ‘हास’ कहा जाता है। यही ‘हास’ विभाव, अनुभाव तथा संचारी भाव से पुष्ट होकर ‘हास्य रस’ में परिणत हो जाता है।

हास्य रस के अवयव/उपकरण :

  1. स्थायी भाव–हास।
  2. आलम्बन विभाव–विकृत वेशभूषा, आकार एवं चेष्टाएँ।
  3. उद्दीपन विभाव–आलम्बन की अनोखी आकृति, बातचीत, चेष्टाएँ आदि।
  4. अनुभाव–आश्रय की मुस्कान, नेत्रों का मिचमिचाना एवं अट्टहास।
  5. संचारी भाव–हर्ष, आलस्य, निद्रा, चपलता, कम्पन, उत्सुकता आदि।

हास्य रस के उदाहरण – Example Of Hasya Ras In Hindi

बिन्ध्य के बासी उदासी तपो ब्रतधारि महा बिनु नारि दुखारे।
गौतम तीय तरी तुलसी सो कथा सुनि भे मुनिबृन्द सुखारे॥
ढहैं सिला सब चन्द्रमुखी परसे पद मंजुल कंज तिहारे।
कीन्हीं भली रघुनायक जू ! करुना करि कानन को पगु धारे॥

तुलसीदास

स्पष्टीकरण–इस छन्द में स्थायी भाव ‘हास’ है। ‘रामचन्द्रजी’ आलम्बन हैं, ‘गौतम की स्त्री का उद्धार’ उद्दीपन है। ‘मुनियों की कथा आदि सुनना’ अनुभाव हैं तथा ‘हर्ष, उत्सुकता, चंचलता’ आदि संचारी भाव हैं। इसमें हास्य रस का आश्रय पाठक है तथा आलम्बन हैं–विन्ध्य के उदास वासी।

शब्द की व्युत्पत्ति एवं अर्थ संस्कृत में ‘रस’ शब्द की व्युत्पत्ति ‘रसस्यते असो इति रसाः’ के रूप में की गई है; अर्थात् जिसका आस्वादन किया जाए, वही रस है; परन्तु साहित्य में काव्य को पढ़ने, सुनने या उस पर आधारित अभिनय देखने से जो आनन्द प्राप्त होता है, उसे ‘रस’ कहते हैं।

सर्वप्रथम भरतमुनि ने अपने ‘नाट्यशास्त्र’ में रस के स्वरूप को स्पष्ट किया था। रस की निष्पत्ति के सम्बन्ध में उन्होंने लिखा है–

“विभावानुभावव्यभिचारिसंयोगाद्रसनिष्पत्तिः।” अर्थात् विभाव, अनुभाव तथा व्यभिचारी भाव के संयोग से रस की निष्पत्ति होती है। इस प्रकार काव्य पढ़ने, सुनने या अभिनय देखने पर विभाव आदि के संयोग से उत्पन्न होनेवाला आनन्द ही ‘रस’ है।

काव्य में रस का वही स्थान है, जो शरीर में आत्मा का है। जिस प्रकार आत्मा के अभाव में प्राणी का अस्तित्व सम्भव नहीं है, उसी प्रकार रसहीन कथन को काव्य नहीं कहा जा सकता। इस प्रकार रस ‘काव्य की आत्मा ‘ है।

रस के अंग (अवयव)

रस के प्रमुख अंग निम्नलिखित हैं

  1. स्थायी भाव,
  2. विभाव,
  3. अनुभाव,
  4. संचारी अथवा व्यभिचारी भाव।

रस के इन विभिन्न अंगों का विवेचन इस प्रकार किया जा सकता है

1. रस का स्थायी भाव
अर्थ–स्थायी भाव प्रत्येक सहृदय व्यक्ति के हृदय में हमेशा विद्यमान रहते हैं। यद्यपि वे सुप्त अवस्था में रहते हैं, तथापि उचित अवसर पर जाग्रत एवं पुष्ट होकर ये रस के रूप में परिणत हो जाते हैं।

स्थायी भाव एवं उनसे सम्बन्धित रस–एक स्थायी भाव का सम्बन्ध एक रस से होता है। इनकी संख्या नौ है, किन्तु कुछ आचार्यों ने इनकी संख्या ग्यारह निर्धारित की है। ये ग्यारह स्थायी भाव और इनसे सम्बन्धित रसों के नाम इस प्रकार हैं

स्थायी भावरस

  1. रति–शृंगार
  2. हास–हास्य
  3. शोक–करुण
  4. क्रोध–रौद्र
  5. उत्साह–वीर
  6. भय–भयानक
  7. आश्चर्य–अद्भुत
  8. जुगुप्सा, ग्लानि–बीभत्स
  9. निर्वेद–शान्त
  10. वत्सलता–वात्सल्य
  11. देवविषयक रति–भक्ति।

इनमें अन्तिम दो स्थायी भावों (वत्सलता तथा देवविषयक रति) को श्रृंगार के अन्तर्गत सम्मिलित किया गया है। प्रत्येक स्थायी भाव का संक्षिप्त परिचय निम्नलिखित है

  1. रति–स्त्री–पुरुष की एक–दूसरे के प्रति उत्पन्न प्रेम नामक चित्तवृत्ति को ‘रति’ स्थायी भाव कहते
  2. हास–रूप, वाणी एवं अंगों के विकारों को देखने से चित्त का विकसित होना ‘हास’ कहलाता है।
  3. शोक–प्रिय वस्तु (इष्टजन, वैभव आदि) के नाश इत्यादि के कारण उत्पन्न होनेवाली चित्त की व्याकुलता को ‘शोक’ कहते हैं।
  4. क्रोध–असाधारण अपराध, विवाद, उत्तेजनापूर्ण अपमान आदि से उत्पन्न मनोविकार को ‘क्रोध’ कहते हैं।
  5. उत्साह–मन की वह उल्लासपूर्ण वृत्ति, जिसके द्वारा मनुष्य तेजी के साथ किसी कार्य को करने में लग जाता है, ‘उत्साह’ कहलाती है। इसकी अभिव्यक्ति शक्ति, शौर्य एवं धैर्य के प्रदर्शन में होती है।
  6. भय–हिंसक जन्तुओं के दर्शन, अपराध, भयंकर शब्द, विकृत चेष्टा और रौद्र आकृति द्वारा उत्पन्न मन की व्याकुलता को ही ‘भय’ स्थायी भाव के रूप में परिभाषित किया जाता है।
  7. आश्चर्य–अलौकिक वस्तु को देखने, सुनने या स्मरण करने से उत्पन्न मनोविकार ‘आश्चर्य’ कहलाता है।
  8. जुगुप्सा–किसी अरुचिकर या मन के प्रतिकूल वस्तु को देखने अथवा उसकी कल्पना करने से जो भाव उत्पन्न होता है, वह ‘जुगुप्सा’ कहलाता है।
  9. निर्वेद–सांसारिक विषयों के प्रति वैराग्य की उत्पत्ति ‘निर्वेद’ कहलाती है।
  10. वत्सलता–माता–पिता का सन्तान के प्रति अथवा भाई–बहन का परस्पर सात्त्विक प्रेम ही ‘वत्सलता’ कहलाता है।
  11. देव–विषयक रति–ईश्वर में परम अनुरक्ति ही ‘देव–विषयक रति’ कहलाती है।

रस–निष्पत्ति में स्थायी भाव का महत्त्व–स्थायी भाव ही परिपक्व होकर रस–दशा को प्राप्त होते हैं; इसलिए रस–निष्पत्ति में स्थायी भाव का सबसे अधिक महत्त्व है। अन्य सभी भाव और कार्य स्थायी भाव की पुष्टि के लिए ही होते हैं।

2. रस का विभाव
अर्थ–जो कारण (व्यक्ति, पदार्थ आदि) दूसरे व्यक्ति के हृदय में स्थायी भाव को जाग्रत तथा उद्दीप्त करते हैं, उन्हें ‘विभाव’ कहते हैं।

विभाव के भेद–’विभाव’ आश्रय के हृदय में भावों को जाग्रत करते हैं और उन्हें उद्दीप्त भी करते हैं। इस आधार पर विभाव के निम्नलिखित दो भेद हैं

  1. आलम्बन विभाव–जिस व्यक्ति अथवा वस्तु के कारण कोई भाव जाग्रत होता है, उस व्यक्ति अथवा वस्तु को उस भाव का ‘आलम्बन विभाव’ कहते हैं।
  2. उद्दीपन विभाव–स्थायी भावों को उद्दीप्त तथा तीव्र करनेवाला कारण ‘उद्दीपन विभाव’ कहलाता है। आलम्बन की चेष्टा तथा देश–काल आदि को ‘उद्दीपन विभाव’ माना जाता है।

रस–निष्पत्ति में विभाव का महत्त्व–हमारे मन में रहनेवाले स्थायी भावों को जाग्रत करने तथा उद्दीप्त करने का कार्य विभाव द्वारा होता है। जाग्रत तथा उद्दीप्त स्थायी भाव ही रस का रूप प्राप्त करते हैं। इस प्रकार रस–निष्पत्ति में विभाव का अत्यधिक महत्त्व है।

3. रस का अनुभाव

अर्थ–आश्रय की चेष्टाओं अथवा रस की उत्पत्ति को पुष्ट करनेवाले वे भाव, जो विभाव के बाद उत्पन्न होते हैं, ‘अनुभाव’ कहलाते हैं। भावों को सूचना देने के कारण ये भावों के ‘अनु’ अर्थात् पश्चात्वर्ती माने जाते हैं।

अनुभाव के भेद–अनुभावों के मुख्य रूप से निम्नलिखित चार भेद किए गए हैं

  1. कायिक अनुभाव–प्रायः शरीर की कृत्रिम चेष्टा को ‘कायिक अनुभाव’ कहा जाता है।
  2. मानसिक अनुभाव–मन में हर्ष–विषाद आदि के उद्वेलन को ‘मानसिक अनुभाव’ कहते हैं।
  3. आहार्य अनुभाव–मन के भावों के अनुसार अलग–अलग प्रकार की कृत्रिम वेश–रचना करने को ‘आहार्य अनुभाव’ कहते हैं।
  4. सात्त्विक अनुभाव हेमचन्द्र के अनुसार ‘सत्त्व’ का अर्थ है ‘प्राण’। स्थायी भाव ही प्राण तक पहुँचकर ‘सात्त्विक अनुभाव का रूप धारण कर लेते हैं।

रस–निष्पत्ति में अनुभावों का महत्त्व–स्थायी भाव जाग्रत और उद्दीप्त होकर रस–दशा को प्राप्त होते हैं। अनुभावों के द्वारा इस बात का ज्ञान होता है कि आश्रय के हृदय में रस की निष्पत्ति हो रही है अथवा नहीं। इसके साथ ही अनुभावों का चित्रण काव्य को उत्कृष्टता प्रदान करता है।

4. रस का संचारी अथवा व्यभिचारी भाव

अर्थ–जो भाव, स्थायी भावों को अधिक पुष्ट करते हैं, उन सहयोगी भावों को ‘संचारी भाव’ कहा जाता है। भरतमुनि ने संचारी भावों का स्पष्टीकरण करते हुए कहा है कि ये वे भाव हैं, जो रसों में अनेक प्रकार से विचरण करते हैं तथा रसों को पुष्ट कर आस्वादन के योग्य बनाते हैं। जिस प्रकार समुद्र में लहरें उत्पन्न होती हैं और उसी में विलीन हो जाती हैं, उसी प्रकार स्थायी भाव में संचारी भाव उत्पन्न और विलीन होते रहते हैं।

संचारी भावों के भेद आचार्यों ने संचारी भावों की संख्या 33 निश्चित की है, जिनके नाम इस प्रकार हैं

  • निर्वेद
  • आवेग
  • दैन्य
  • श्रम
  • मद
  • जड़ता
  • उग्रता
  • मोह
  • विबोध
  • स्वप्न
  • अपस्मार
  • गर्व
  • मरण
  • आलस्य
  • अमर्ष
  • निद्रा
  • अवहित्था
  • उत्सुकता
  • उन्माद
  • शंका
  • स्मृति
  • मति
  • व्याधि
  • सन्त्रास
  • लज्जा
  • हर्ष
  • असूया
  • विषाद
  • धृति
  • चपलता
  • ग्लानि
  • चिन्ता
  • वितर्क।

रस–निष्पत्ति में संचारी भावों का महत्त्व–संचारी भाव स्थायी भाव को पुष्ट करते हैं। वे स्थायी भावों को इस योग्य बनाते हैं कि उनका आस्वादन किया जा सके। यद्यपि वे स्थायी भाव को पुष्ट कर स्वयं समाप्त हो जाते हैं, तथापि ये स्थायी भाव को गति एवं व्यापकता प्रदान करते हैं।

श्रृंगार रस – Shringar Ras अर्थ–नायक और नायिका के मन में संस्कार रूप में स्थित रति या प्रेम जब रस की अवस्था को पहुँचकर आस्वादन के योग्य हो जाता है तो वह ‘श्रृंगार रस’ कहलाता है।

श्रंगार रस के अवयव (उपकरण)

  1. स्थायी भाव–रति।
  2. आलम्बन विभाव–नायक और नायिका।
  3. उद्दीपन विभाव–आलम्बन का सौन्दर्य, प्रकृति, रमणीक उपवन, वसन्त–ऋतु, चाँदनी, भ्रमर–गुंजन, पक्षियों का कूजन आदि।
  4. अनुभाव–अवलोकन, स्पर्श, आलिंगन, कटाक्ष, अश्रु आदि।
  5. संचारी भाव–हर्ष, जड़ता, निर्वेद, अभिलाषा, चपलता, आशा, स्मृति, रुदन, आवेग, उन्माद आदि।

श्रृंगार के भेद–श्रृंगार के दो भेद हैं–संयोग श्रृंगार तथा वियोग या विप्रलम्भ श्रृंगार। इनका विवेचन निम्नलिखित है
(i) संयोग श्रृंगार–संयोगकाल में नायक और नायिका की पारस्परिक रति को ‘संयोग श्रृंगार’ कहा जाता है। यहाँ संयोग का अर्थ है–सुख की प्राप्ति करना।

श्रृंगार रस के उदाहरण : Example Of Shringar Ras In Hindi

दूलह श्रीरघुनाथ बने दुलही सिय सुन्दर मन्दिर माहीं।
गावति गीत सबै मिलि सुन्दरि बेद जुवा जुरि बिप्र पढ़ाहीं॥
राम को रूप निहारति जानकि कंकन के नग की परछाहीं।
यातें सबै सुधि भूलि गई कर टेकि रही, पल टारत नाहीं॥

तुलसीदास स्पष्टीकरण–इस पद में स्थायी भाव ‘रति’ है। ‘राम’ आलम्बन, ‘सीता’ आश्रय, नग में पड़नेवाला राम का ‘प्रतिबिम्ब’ उद्दीपन, ‘उस प्रतिबिम्ब को देखना, हाथ टेकना’ अनुभाव तथा ‘हर्ष एवं जड़ता’ संचारी भाव हैं। अतः इस पद में संयोग श्रृंगार है।

(ii) वियोग या विप्रलम्भ श्रृंगार–एक–दूसरे के प्रेम में अनुरक्त नायक एवं नायिका के मिलन के अभाव को ‘विप्रलम्भ शृंगार’ कहा जाता है।

उदाहरण–
रे मन आज परीक्षा तेरी !
सब अपना सौभाग्य मनावें।
दरस परस निःश्रेयस पावें।
उद्धारक चाहें तो आवें।
यहीं रहे यह चेरी !

मैथिलीशरण गुप्त

स्पष्टीकरण–इसमें स्थायी भाव ‘रति’ है। ‘यशोधरा’ आलम्बन है। उद्धारक गौतम के प्रति यह भाव कि वे चाहें तो आवे’ उद्दीपन विभाव है। ‘मन को समझाना और उद्बोधन’ अनुभाव है, ‘यशोधरा का प्रणय’ मान है तथा मति, वितर्क और अमर्ष संचारी भाव हैं; अतः इस छन्द में विप्रलम्भ श्रृंगार है। ‘

हास्य रस – Hasya Ras अर्थ–वेशभूषा, वाणी, चेष्टा आदि की विकृति को देखकर हृदय में विनोद का जो भाव जाग्रत होता है, उसे ‘हास’ कहा जाता है। यही ‘हास’ विभाव, अनुभाव तथा संचारी भाव से पुष्ट होकर ‘हास्य रस’ में परिणत हो जाता है।

हास्य रस के अवयव/उपकरण :

  1. स्थायी भाव–हास।
  2. आलम्बन विभाव–विकृत वेशभूषा, आकार एवं चेष्टाएँ।
  3. उद्दीपन विभाव–आलम्बन की अनोखी आकृति, बातचीत, चेष्टाएँ आदि।
  4. अनुभाव–आश्रय की मुस्कान, नेत्रों का मिचमिचाना एवं अट्टहास।
  5. संचारी भाव–हर्ष, आलस्य, निद्रा, चपलता, कम्पन, उत्सुकता आदि।

हास्य रस के उदाहरण – Example Of Hasya Ras In Hindi

बिन्ध्य के बासी उदासी तपो ब्रतधारि महा बिनु नारि दुखारे।
गौतम तीय तरी तुलसी सो कथा सुनि भे मुनिबृन्द सुखारे॥
ढहैं सिला सब चन्द्रमुखी परसे पद मंजुल कंज तिहारे।
कीन्हीं भली रघुनायक जू ! करुना करि कानन को पगु धारे॥

तुलसीदास

स्पष्टीकरण–इस छन्द में स्थायी भाव ‘हास’ है। ‘रामचन्द्रजी’ आलम्बन हैं, ‘गौतम की स्त्री का उद्धार’ उद्दीपन है। ‘मुनियों की कथा आदि सुनना’ अनुभाव हैं तथा ‘हर्ष, उत्सुकता, चंचलता’ आदि संचारी भाव हैं। इसमें हास्य रस का आश्रय पाठक है तथा आलम्बन हैं–विन्ध्य के उदास वासी।

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मेरे विचार……. दीपक की लौ आकार में भले ही छोटी हो, लेकिन उसकी चमक और रोशनी दूर तक जाती ही है। एक अच्छा शिक्षक वही है जिसके पास पूछने आने के लिए छात्र उसी प्रकार तत्पर रहें जिस प्रकार माँ की गोद में जाने के लिए रहते हैं। मेरे विचार में अध्यापक अपनी कक्षा रूपी प्रयोगशाला का स्वयं वैज्ञानिक होता है जो अपने छात्रों को शिक्षित करने के लिए नव नव प्रयोग करता है। आपका दृष्टिकोण व्यापक है आपके प्रयास सार्थक हैं जो अन्य अध्यापकों को भी प्रेरित कर सकते हैं… संयोग से कुछ ऐसी कार्ययोजनाओं में प्रतिभाग करने का मौका मिला जहाँ भाषा शिक्षण के नवीन तरीकों पर समझ बनी। इस दौरान कुछ नए साथियों से भी मिलना हुआ। उनसे भी भाषा की नई शिक्षण विधियों पर लगातार संवाद होता रहा। साहित्य में रुचि होने के कारण हमने अब शिक्षा से सम्‍बन्धित साहित्य पढ़ना शुरू किया। कोई बच्चा बहुत से लोकप्रिय तरीके से सीखता है तो कोई बच्चा अपने विशिष्ट तरीके से किसी विषय को ग्रहण करता है और अपने तरीके से उस पर अपनी समझ का निर्माण करता है। इसी सन्‍दर्भ में बच्चों के मनोविज्ञान को समझने की जरूरत है। मनोविज्ञान को मानसिक प्रक्रियाओं, अनुभवों और व्यवहार के वैज्ञानिक अध्ययन के रूप में देखा जाता है। इसी नजरिये से शिक्षा मनोविज्ञान को भी क्लासरूम के व्यावहारिक परिदृश्य के सन्‍दर्भ में देखने की आवश्यकता है। यहाँ गौर करने वाली बात है, “स्कूल में बच्चों को पढ़ाते समय केवल कुछ बच्चों पर ध्यान देने से हम बच्चों का वास्तविक आकलन नहीं कर पाते कि वे क्या सीख रहे हैं? उनको किसी बात को समझने में कहाँ दिक्कत हो रही है? किस बच्चे को किस तरह की मदद की जरूरत है। किस बच्चे की क्या खूबी है। किस बच्चे की प्रगति सही दिशा में हो रही है। कौन सा बच्चा लगातार बेहतर प्रदर्शन कर रहा है और उसे आगे बढ़ने के लिए स्वतंत्र रूप से पढ़ने और काम करने के ज़्यादा मौके देने की जरूरत है।” एक शिक्षक को बच्चों के आँसू और बच्चों की खुशी दोनों के लिए सोचना चाहिए। बतौर शिक्षक हम बच्चों के पठन कौशल , समझ निर्माण व जीवन के प्रति एक व्यापक दृष्टिकोण का निर्माण कर रहे होते हैं। अपने व्यवहार से बच्चों की जिंदगी में एक छाप छोड़ रहे होते हैं। ऐसे में हमें खुद को वक्‍त के साथ अपडेट करने की जरूरत होती है। इसके लिए निरन्‍तर पढ़ना, लोगों से संवाद करना, शिक्षा के क्षेत्र में होने वाले भावी बदलावों को समझना बेहद जरूरी है। ताकि आप समय के साथ कदमताल करते हुए चल सकें और भावी नागरिकों के निर्माण का काम ज्यादा जिम्मेदारी और सक्रियता के साथ कर सकें। इस बारे में संक्षेप में कह सकते हैं कि बतौर शिक्षक हमें खुद भी लगातार सीखने का प्रयास जारी रखना चाहिए। आज के शिक्षण-अधिगम प्रक्रिया में सूचना और तकनीक का इस्तेमाल बढ़ गया है। पुस्तक जहाँ पहले ज्ञान का प्रमाणिक स्रोत और संसाधन हुआ करता था आज वहाँ तकनीक के कई साधन मौजूद हैं। आज विद्‌यार्थी किताबों की श्याम-श्वेत दुनिया से बाहर निकलकर सूचना और तकनीक की रंग-बिरंगी दुनिया में पहुँच चुका है, जहाँ माउस के एक क्लिक पर उसे दुनिया भर की जानकारी दृश्य रूप में प्राप्त हो जाती है। एक शिक्षक होने के नाते यह ज़िम्मेदारी होनी चाहिए कि हम समय के साथ खुद को ढालें और शिक्षण-अधिगम प्रक्रिया को सुचारू रूप से गतिशील बनाए रखने के लिए आधुनिक तकनीक के साधनों का भरपूर प्रयोग करें। यदि आप अपनी कक्षा में सूचना और तकनीक का इस्तेमाल करते हुए विद्‌यार्थी-केन्द्रित शिक्षण को प्रोत्साहित करते हैं तो आपकी कक्षा में शैक्षणिक वातावरण का विकास होता है और विद्‌यार्थी अपने अध्ययन में रुचि लेते हैं। यह ब्लॉग एक प्रयास है जिसका उददेश्य है कि इतने वर्षों में हिंदी अध्ययन तथा अध्यापन में जो कुछ मैंने सीखा सिखाया । उसे अपने विद्यार्थियों और मित्रों से साझा कर सकूँ यह विद्यार्थियों तथा हमारे बीच एक अखंड श्रृंखला का कार्य करेगा। मै अपनी ग़ैरमौजूदगी में भी अपने ज़रूरतमंद विद्यार्थियों के बहुत पास रहूँगा …… मेरा प्रयास है कि अपने विद्यार्थी समुदाय तथा कक्षा शिक्षण को मैं आधुनिक तकनीक से जोड़ सकूँ जिससे हर एक विद्यार्थी लाभान्वित हो सके …

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