सूर्यकांत त्रिपाठी ‘निराला’
सूर्यकांत त्रिपाठी ‘निराला’ का जन्म 1896 में वसंत पंचमी के दिन हुआ था। आपके जन्म की तिथि को लेकर अनेक मत प्रचलित हैं। निराला जी के कहानी संग्रह ‘लिली’ में उनकी जन्मतिथि 21 फरवरी 1899 प्रकाशित है। ‘निराला’ अपना जन्म-दिवस वसंत पंचमी को ही मानते थे। आपके पिता पंडित रामसहाय तिवारी उन्नाव के रहने वाले थे और महिषादल में सिपाही की नौकरी करते थे। ‘निराला’ जी की औपचारिक शिक्षा हाई स्कूल तक हुई। तदुपरांत हिन्दी, संस्कृत तथा बांग्ला का अध्ययन आपने स्वयं किया। तीन वर्ष की बालावस्था में माँ की ममता छीन गई व युवा अवस्था तक पहुंचते-पहुंचते पिताजी भी साथ छोड़ गए। प्रथम विश्वयुध्द के बाद फैली महामारी में आपने अपनी पत्नी मनोहरा देवी, चाचा, भाई तथा भाभी को गँवा दिया। विषम परिस्थितियों में भी आपने जीवन से समझौता न करते हुए अपने तरीक़े से ही जीवन जीना बेहतर समझा।
इलाहाबाद से आपका विशेष अनुराग लम्बे समय तक बना रहा। इसी शहर के दारागंज मुहल्ले में अपने एक मित्र, ‘रायसाहब’ के घर के पीछे बने एक कमरे में 15 अक्टूबर 1971 को आपने अपने प्राण त्याग इस संसार से विदा ली। निराला ने कई महत्वपूर्ण ग्रंथों का हिन्दी में अनुवाद भी किया। ‘निराला’ सचमुच निराले व्यक्तित्व के स्वामी थे। निराला का हिंदी साहित्य में विशेष स्थान है।
कार्यक्षेत्र
सूर्यकांत त्रिपाठी ‘निराला’ की पहली नियुक्ति महिषादल राज्य में ही हुई। उन्होंने १९१८ से १९२२ तक यह नौकरी की। उसके बाद संपादन, स्वतंत्र लेखन और अनुवाद कार्य की ओरप्रवृत्त हुए। १९२२ से १९२३ के दौरान कोलकाता से प्रकाशित ‘समन्वय’ का संपादन किया, १९२३ के अगस्त से मतवाला के संपादक मंडल में कार्य किया। इसके बाद लखनऊ में गंगा पुस्तकमाला कार्यालय में उनकी नियुक्ति हुई जहाँ वे संस्था की मासिक पत्रिका सुधा से १९३५ के मध्य तक संबद्ध रहे। १९३५ से १९४० तक का कुछ समय उन्होंने लखनऊ में भी बिताया। इसके बाद१९४२ से मृत्यु पर्यन्त इलाहाबाद में रह कर स्वतंत्र लेखन और अनुवाद कार्य किया। उनकी पहली कविता जन्मभूमि प्रभा नामक मासिक पत्र में जून १९२० में, पहला कविता संग्रह १९२३ मेंअनामिका नाम से, तथा पहला निबंध बंग भाषा का उच्चारण अक्टूबर १९२० में मासिक पत्रिका सरस्वती में प्रकाशित हुआ।
अपने समकालीन अन्य कवियों से अलग उन्होंने कविता में कल्पना का सहारा बहुत कम लिया है और यथार्थ को प्रमुखता से चित्रित किया है। वे हिन्दी में मुक्तछंद के प्रवर्तक भी मानेजाते हैं। 1930 में प्रकाशित अपने काव्य संग्रह परिमल की भूमिका में वे लिखते हैं मनुष्यों की मुक्ति की तरह कविता की भी मुक्ति होती है। मनुष्यों की मुक्ति कर्म के बंधन से छुटकारा पाना है और कविता की मुक्ति छन्दों के शासन से अलग हो जाना है। जिसतरह मुक्त मनुष्य कभी किसी तरह दूसरों के प्रतिकूल आचरण नहीं करता, उसके तमाम कार्य औरों को प्रसन्न करने के लिए होते हैं फिर भी स्वतंत्र। इसी तरह कविता का भी हाल है।
पूर्ण कविताएँ
प्रौढ़ कृतियों की सर्जना के साथ ही ‘निराला’ व्यंग्यविनोद पूर्ण कविताएँ भी लिखते रहे हैं। जिनमें से कुछ ‘अनामिका’ में संग्रहीत हैं। पर इसके बाद बाह्य परिस्थितियों के कारण, जिनमेंउनके प्रति परम्परावादियों का उग्र विरोध भी सम्मिलित है, उनमें विशेष परिवर्तन दिखाई पड़ने लगा। ‘निराला’ और पन्त मूलत: अनुभूतिवादी कवि हैं। ऐसे व्यक्तियों को व्यक्तिगत औरसामाजिक परिस्थितियाँ बहुत प्रभावित करती हैं। इसके फलस्वरूप उनकी कविताओं में व्यंग्योक्तियों के साथ-साथ निषेधात्मक जीवन की गहरी अभिव्यक्ति होने लगी। ‘कुकुरमुत्ता’ तकपहुँचते-पहुँचते वह प्रगतिवाद के विरोध में तर्क उपस्थित करने लगता है। उपालम्भ और व्यंग्य के समाप्त होते-होते कवि में विषादात्मक शान्ति आ जाती है। अब उनके कथन में दुनिया के लिएसन्देश भगवान् के प्रति आत्मनिवेदन है और है साहित्यिक-राजनीतिक महापुरुषों के प्रशस्ति अंकन का प्रयास। ‘अणिमा’ जीवन के इन्हीं पक्षों की द्योतक है, पर इसकी कुछ अनुभूतियों कीतीव्रता मन को भीतर से कुरेद देती है। ‘बेला’ और ‘नये पत्ते’ में कवि की मुख्य दृष्टि उर्दू और फ़ारसी के बन्दों (छन्दों) को हिन्दी में डालने की ओर रही है। इसके बाद के उनके दो गीत-संग्रहों-‘अर्चना’ और ‘गीतगुंज’ में कहीं पर गहरी आत्मानुभूति की झलक है तो कहीं व्यंग्योक्ति की। उनके व्यंग्य की बानगी देखने के लिए उनकी दो गद्य की रचनाओं ‘कुल्लीभाँट’ और ‘बिल्लेसुरबकरिहा’ को भुलाया नहीं जा सकता।
साहित्यिक सेवाएं-
महाकवि निराला का उदय छायावादी कवि के रूप में हुआ । इन्होंने अपने साहित्यिक जीवन का प्रारंभ ‘जन्मभूमि की वंदना’ नामक एक कविता की रचना करके किया । उन्होंने‘सरस्वती’ और ‘मर्यादा’ पत्रिका का निरंतर अध्ययन करके हिंदी का ज्ञान प्राप्त किया । ‘जूही की कली’ कविता की रचना करने हिंदी जगत में अपनी पहचान बना ली । छायावादी लेखक के रूपमें प्रसाद, पंत, और महादेवी वर्मा के समकक्ष ही इनकी गणना की जाती है । ये छायावाद के चार स्तंभों में सइ एक मने जाते हैं ।
रचनाएँ- निराला जी की प्रमुख रचनाएं निम्नलिखित है –
काव्य रचनाएं –
परिमल’ – यह निराला की छायावादी रचनाओं का संग्रह है । जिसमें प्रेम और सौंदर्य का वर्णन किया गया है। इसमें ‘बादल राग’, ‘भिक्षुक’ तथा ‘विधवा’ आदि प्रगतिशील रचनाएं भी संकलित है ।
अनामिका – इसके दो संस्करण प्रकाशित हुए हैं। सन 1923 ईसवी में प्रकाशित प्रथम संस्करण में निराला जी की प्रारंभिक रचनाएं संकलित हैं । इनकी तीन कविताएं ‘पंचवटी प्रसंग’, ‘जूही कीकली’ तथा ‘तुम और मैं’ विशेष उल्लेखनीय है। इसका द्वितीय संस्करण सन 1931 ईस्वी में प्रकाशित हुआ इसमें ‘राम की शक्ति पूजा’, ‘सम्राट अष्टम एडवर्ड के प्रति’, ‘सरोज स्मृति’, ‘दान’, ‘तोड़ती पत्थर’ आदि कविताएं संग्रहित है ।
गीतिका – इसका प्रकाशन सन 1926 ईस्वी में हुआ था । यह 101 गीतों का लघु संग्रह है । इसमें प्रेम, प्रकृति, राष्ट्रीय एवं दार्शनिक भावनाओं से परिपूर्ण कविताएं हैं । तुलसीदास- गोस्वामीतुलसीदास पर लिखा गया एक खंड काव्य है ।
कुकुरमुत्ता, नए पत्ते- ये दो व्यंग प्रधान कविताओं का संग्रह है । इसमें सामाजिक भ्रष्टाचार पर तीखे व्यंग किए गए हैं ।
अन्य रचनाएँ- अणिमा, अपरा, बेला, आराधना तथा अर्चना भी निराला की अनुपम काव्य रचनाएँ हैं।
वह आता–
दो टूक कलेजे को करता, पछताता
पथ पर आता।
पेट पीठ दोनों मिलकर हैं एक,
चल रहा लकुटिया टेक,
मुट्ठी भर दाने को — भूख मिटाने को
मुँह फटी पुरानी झोली का फैलाता —
दो टूक कलेजे के करता पछताता पथ पर आता।
साथ दो बच्चे भी हैं सदा हाथ फैलाए,
बाएँ से वे मलते हुए पेट को चलते,
और दाहिना दया दृष्टि-पाने की ओर बढ़ाए।
भूख से सूख ओठ जब जाते
दाता-भाग्य विधाता से क्या पाते?
घूँट आँसुओं के पीकर रह जाते।
चाट रहे जूठी पत्तल वे सभी सड़क पर खड़े हुए,
और झपट लेने को उनसे कुत्ते भी हैं अड़े हुए !
ठहरो ! अहो मेरे हृदय में है अमृत, मैं सींच दूँगा
अभिमन्यु जैसे हो सकोगे तुम
तुम्हारे दुख मैं अपने हृदय में खींच लूँगा।
सारांश –
कवि जब फटेहाल भिखारी को रास्ते पर आता देखता है तो उसकी दीन-हीन अवस्था ही नहीं बलिक तार-तार मन: स्थिति का भी चित्र प्रस्तुत करता है। भिक्षा की याचना भिखारी खुशीपूर्वक नहीं करता बलिक ऐसा करते हुए उसका कलेजा चूर-चूर हो जाता है, उसके हृदय के टुकड़े-टुकड़े हो जाते हैं। भीख माँगते हुए उसका मन पश्चाताप से भी भर उठता है। उसका शरीर अत्यन्त दुर्बल है और सिथति यह है कि उसके पेट और पीठ अलग-अलग दिखार्इ नहीं पड़ते बल्कि दोनों मिलकर एक ही हो गये। वह लाठी लेकर चल रहा है। लाठी लेकर चलना जहाँ उसकी शारीरिक दुर्बलता की ओर संकेत करता है वहीं घुटनों की कमजोरी को भी दर्शाता है जो वृद्धावस्था का परिणाम भी हो सकती है। उसकी माँग मुटठी भर अन्न के दाने हैं जिनसे वह अपनी भूख मिटा सके। इसी आशा से वह अपनी फटी हुर्इ झोली को बार-बार फैला रहा है। परन्तु ऐसा करते हुए उसका जी टुकड़े-टुकड़े हो जाता है।
भिखारी के साथ में दो बच्चे भी हैं जो सदैव अपने हाथ फैलाये रखते हैं, बाँयें हाथ से वे अपने पेट पर हाथ फेरते रहते हैं मानों अपनी भूख का इज़हार कर रहे हों और दायाँ हाथ आगे की ओर फैला रहता है इस आशा में कि किसी की दया का पात्रा वे बन जाएँ और कोर्इ इन्हें पैसा-दो-पैसा या रोटी दे दें। किसी व्यकित की भी दया-दृषिट जब उन पर नहीं पड़ती तो उनके ओंठ भूख के कारण सूख जाते हैं और दान-दाता से वे कुछ भी नहीं पाते, तो वे आँसुओं के घूँट पीकर रह जाते हैं। अभिप्राय यह है कि ये भिखारी इस आशा में कि कोर्इ उनकी भूख को मिटाने का प्रयत्न करेगा, सड़क पर इधर से उधर घूमते रहते हैं परन्तु कोर्इ इन पर दया नहीं दिखलाता और भूख के कारण व्याकुल इनकी आँखों से आँसू बहने लगते हैं। जिनको वे अपना भाग्य-विधाता मान बैठे हैं उनसे उन्हें कुछ भी हासिल नहीं होता, निराशा ही हाथ लगती है। कभी उनकी नज़र सड़क पर पड़ी हुर्इ जूठी पत्तलों पर पड़ती है तो भूख के कारण वे उन्हें ही चाटने लगते हैं किन्तु यहाँ भी उनके प्रतिद्वन्दी के रूप में कुत्ते मौजूद हैं जिन्हें लगता है कि उनकी भूख का भाग (हिस्सा) उन भिखारियों के द्वारा खाया जा रहा है इसलिए वे भी उनके हाथों से उन जूठी पत्तलों को हथियाने के लिए अड़े हुए हैं। जीवन की कैसी विडम्बना है कि जो जानवरों के लिए भोग्य वस्तु है, वह भी उनके नसीब में नहीं है या उसके लिए भी उन्हें संघर्ष करना पड़ रहा है। परन्तु कवि का हृदय संवेदना से रिक्त नहीं है वह उन्हें आश्वासन देते हुए कहता है कि मेरे हृदय में संवेदना का अमृत बह रहा है मैं उससे तुम्हें सींचकर तृप्त कर दूँगा, तुम्हारे सम्पूर्ण दुख-दर्द मैं स्वयं धारण करूँगा परन्तु उसके बदले में तुम्हें भी संघर्षशील होना होगा; तुम्हें अभिमन्यु जैसा जुझारू योद्धा होना होगा; जैसे अभिमन्यु चक्रव्यूह से बाहर निकलने के लिए जूझता रहा, उसी प्रकार तुम्हें भी इस गरीबी के चक्र से मुक्त होने के लिए प्रयत्नशील होना होगा। कहने का आशय यह है कि व्यकित को स्वयं भी अपनी दुरवस्था से मुक्त होने के लिए प्रयत्न करना पड़ता है दूसरे की सहायता ओर साथ भी तभी सार्थक हो सकते हैं।
- निराला जी की कविता में मार्मिकता स्पष्ट रूप से झलकती है। उनके स्वयं के जीवन में दुखों का कहर काफी था जिस वजह से वह लोगों के दुख को समझते थे।
- भिक्षुक कविता में कवि ने एक भिखारी के अंतर्मन की दशा का वर्णन किया है। जहां भूख जैसी बला के लिए उसे पश्चाताप करना होता है। दर दर भटकना होता है।यह सब देखकर कवि का हृदय भाव विभोर हो जाता है।
- भिखारी के साथ दो बच्चे भी होते हैं। जो भूख रूपी अग्नि के ज्वाला में इस कदर जलते है कि झूठी पत्तल से खाना खाने लगते हैं क्योंकि जब हम प्यासे होते हैं तो हमारे लिए पानी की एक बूंद भी बहुत कीमती होती है।
- वैसे ही उन बच्चों के होंठ सूख चुके थे और उस वक्त पर झूठी पत्तल ही उनके लिए सहारा बनती है।
- दो टूक कलेजे के करता – हृदय को बहुत दुख पहुँचाता हुआ
- पछताता – पश्चाताप करता हुआ
- लकुटिया – लाठी
- टेक – सहारे, टिकाकर
- दाता भाग्य विधाता – देने वाला, भाग्य का निर्माण करने वाला ईश्वर
- अड़े हुए – तत्पर
- अमृत – अमर करने वाला पेय पदार्थ
- झपट लेना – छीन लेना
अवरतणों पर आधारित प्रश्नोत्तर
प्रश्न
उत्तर
(I) कवि ने प्रस्तुत कविता में भिखारी का मार्मिक यथार्थपरक चित्रण किया है। कवि सड़कपर एक भिखारी को आते हुए देख रहे हैं। उस भिखारी की दयनीय दशा को देखकर कवि आहत हो जाते हैं। उनका मन दुख और वेदना से फटने लगता है।
(ii) कवि ने उसकी गरीबी का वर्णन करते हुए कहा है कि भोजन के अभाव और मानसिक चिन्ता से वह अत्यंत कमज़ोर हो गया है। वह इतना कमज़ोर हो गया है कि लाठी के सहारे के बिना उसका चलना भी नामुमकीन है। उसका पेट और पीठ भोजन न मिलने के कारण एक-दूसरे से मिला हुआ-सा प्रतीत होता है। मुट्ठी-भर अन्न पाने के लिए वह दर-दर जाकर अपनी फटी हुई झोली का मुँह फैलाता है। अपने स्वाभिमान को त्यागकर दुखी मन से मार्ग पर चलता जाता है।
(iii) भिक्षुक के साथ उसके दो बच्चे भी हैं। वे भी बेहाल हैं और भूख मिटाने के लिए अपने बाएँ हाथ से पेट मल रहे हैं तथा दाएँ हाथ को भीख माँगने के लिए लोगों के सामने फैला रहे हैं। वे दोनों बच्चे यह सोचकर ऐसा कर रहे हैं कि उनकी दयनीय दशा को देखकर किसी के मन में दया या सहानुभूति का भाव जग जाए और तरस खाकर उन्हें कुछ खाने को दे दें।
(iv) “दाता-भाग्य-विधाता” का तात्पर्य है देने वाला, भाग्य का निर्माण करने वाला, ईश्वर। माना जाता है कि सम्पूर्ण सृष्टि का निर्माण परमपिता ईश्वर ने किया है और वे मनुष्य के सुख-दुख में उसका ख्याल रखते हैं किन्तु कवि कहते हैं कि वे भिक्षुक अपने भाग्य निर्माता से भूख, अपमान और समाज की उपेक्षा के अतिरिक्त क्या पाते हैं। कवि का इशारा समाज के उन साधन-सम्पन्न वर्गों से है जो अपने स्वार्थ और
लालच में डूबे हुए हैं लेकिन उन्हें इन गरीब, लाचार और साधनहीन व्यक्तियों से कोई मतलब नहीं।