मातृभूमि का मान

हरिकृष्ण ‘प्रेमी’ (1908-1974)

लेखक परिचय –
हरिकृष्ण प्रेमी विख्यात नाटककार एवं पत्रकार थे। उन्होंने अपनी प्रतिभा द्वारा एकांकी साहित्य को समृद्ध बनाने में अपूर्व योगदान दिया है। राष्ट्रीय चेतना को जगाकर साम्प्रदायिक बंधुत्व की भावना समाज में रोपना उनका आदर्श था। प्रेमी जी की रचनाओं में भावुकता है, भाषा सरस एवं काव्यमय होते हुए भी सरल है। मातृभूमि की रक्षा के लिए क्या-क्या बलिदान नहीं करना पड़ता और उसके मान के लिए मित्र-शत्रु कैसे सब एक सूत्र में बँधकर स्वदेश प्रेम की आत्मा को जीवित रखते हैं, यह एकांकी मातृभूमि का मान’ हमारे सामने एक आदर्श प्रस्तुत करता है। वीरसिंह मेवाड़ का एक सिपाही है लेकिन बूँदी का रहने वाला है, अत: वह नकली बूँदी की रक्षा के लिए भी अपने प्राणों को न्यौछावर कर देता है तथा इस प्रकार अपनी मातृभूमि के प्रति अपने प्रेम को प्रदर्शित करता है तथा सभी के सम्मान का पात्र बनता है।

कथानक –

33. Maharana Pratap

मेवाड़ के सेनापति अभयसिंह बूँदी के शासक राव हेमू के पास आकर कहते हैं कि हम राजपूतों की छिन्न-भिन्र असंगठित शक्ति विदेशियों का किस प्रकार सामना कर सकती है? इस कारण यह आवश्यक है कि वे अपनी शक्ति केन्द्र के अधीन रखें। वह यह भी कहते हैं कि इसके लिए महाराणा लाखा चाहते हैं कि छोटे-छोटे राज्य एवं बूँदी राज्य भी मेवाड़ के अधीन रहें। किन्तु बूँदी के शासक राव हेमू इस बात को स्वीकार नहीं करते और कहते हैं-प्रत्येक राजपूत को अपनी ताकत पर नाज़ है। इतने बड़े दंभ को मेवाड़ अपने प्राणों में आश्रय न दे, इसी में उसका कल्याण है। बूँदी स्वतंत्र राज्य है और स्वतंत्र रहकर महाराणाओं का आदर कर सकता है; अधीन रहकर किसी की सेवा करना वह पसन्द नहीं करता। मेवाड़ के शासक महाराणा लाखा को नीमरा के मैदान में बूँदी के राव हेमू से पराजित होकर भागना पड़ा, इसलिए वे अपने को धिक्कारते हैं, और आत्मग्लानि अनुभव करते हैं और इसी कारण वह जनसभा में जाना नहीं चाहते, और अभयसिंह से कहते हैं- जो आन को प्राणों से बढ़कर समझते हैं, वे पराजय का मुख देखकर भी जीवित रहें, यह कैसी उपहासजनक बात इस कारण वे प्रतिज्ञा करते हैं कि जब तक बूँदी के दुर्ग में ससैन्य प्रवेश नहीं कर लेंगे तब तक अन्न- जल ग्रहण नहीं करेंगे। अभयसिंह महाराणा को इस उद्देश्य को पूरा करने के लिए उत्साहित करते हैं।
जब महाराणा यह बात चारणी के सम्मुख रखते हैं तो चारणी महाराणा से बूँदी के राजा से युद्ध करने से मना करती है और कहती है-यदि बूँदी राज्य से कोई धृष्टता बन पड़ी है तो उसे क्षमा कर दें, महाराणा भी उनकी जन्मभूमि और मातृभूमि के प्रति आदर की भावना की सराहना करते हैं। अंत में वीरसिंह मारा जाता है। महाराणा को वीरसिंह के मारे जाने पर दुःख होता है। वीरसिंह के शव का आदर किया जाता है। दुर्ग पर मेवाड़ की पताका फहरायी जाती है लेकिन महाराणा कहते हैं कि इस विजय में उनकी सबसे बड़ी पराजय हुई है, व्यर्थ के दम्भ ने कितनों की जान ले ली। इसके बाद चारणी आती है और राणा से कहती है-अब तो आपकी आत्मा को शांति मिल गई होगी, और कहती है, बूँदी के दुर्ग पर मेवाड़ के सेनापति विजय पताका फहरा रहे हैं। यह सुनकर महाराणा और दु:खी होते हैं। चारणी पुन: महाराणा से कहती है-तो क्या महाराणा, अब भी मेवाड़ और बूँदी के हृदय मिलाने का कोई रास्ता नहीं निकल सकता? इस प्रकार राणा वीरसिंह के शव के पास बैठकर अपने अपराध के लिए क्षमा माँगते हैं किन्तु उनके हृदय में एक प्रश्न उठ रहा है, वे कहते हैं-क्या बूँदी के राव तथा हाड़ा वंश का प्रत्येक राजपूत आज की इस दुर्घटना को भूल सकेगा? इतने में बूँदी के शासक राव हेमू आते हैं और कहते हैं- क्यों नहीं महाराषणा ! हम युग-युग से एक हैं, और एक रहेंगे। आपको यह जानने की आवश्यकता थी कि राजपूतों में न कोई राजा है। न कोई महाराजा; सब देश, जाति और वंश की मान-रक्षा के लिए प्राण देने वाले सैनिक हैं। इस पर अंत में महाराणा कहते हैं-“निश्चय ही महाराव! हम सम्पूर्ण राजपूत जाति की ओर से इस अमर आत्मा के आगे अपना मस्तक झुकाएँ।” तत्पश्चात् सब वीरसिंह के शव के आगे सिर झुकाते हैं।

आलोचनात्मक अध्ययन –

हरिकृष्ण ‘प्रेमी’ द्वारा रचित एकांकी ‘मातृभूमि का मान’साम्प्रदायिक बंधुत्व की भावना को प्रोत्साहित करता है। इस एकांकी में यह दिखाया गया है कि मातृभूमि की रक्षा के लिए, उसके मान के लिए क्या-क्या बलिदान नहीं करना पड़ता, यहाँ तक कि प्राण भी न्यौछावर करने पड़ जाते हैं। मातृभूमि की प्रतिष्ठा के लिए मित्र शत्रु सभी एक सूत्र में बँधकर स्वदेश प्रेम की भावना तथा राष्ट्रीय चेतना को जीवित रखते हैं। ‘मातृभूमि का मान’ एकांकी हमारे सामने एक आदर्श प्रस्तुत करता है। राव हेमू बूँदी के शासक हैं और महाराणा लाखा मेवाड़ के शासक हैं। दोनों ही महत्वाकांक्षी तथा स्वाभिमानी शासक हैं, एक-दूसरे से अपने को बड़ा मानते हैं। महाराणा लाखा अभयसिंह द्वारा बूँदी के शासक को यह सूचना भिजवाते हैं कि बूँदी राज्य उनके अधीन हो जाए तो राजपूताना मजबूत हो जाएगा, सभी राज्य एकता के सूत्र में बँध जाएँगे। इस पर राव हेमू कहते हैं- हाड़ा-वंश किसी की गुलामी स्वीकार नहीं करेगा, चाहे वह विदेशी शक्ति हो, चाहे वह मेवाड़ का महाराणा हो ।”
इस प्रकार यहाँ बूंदी राज्य के शासक राव हेमू के साहस, वीरता, मातृभूमि के प्रति मर मिटने की भावना का पता लगता हैं। वह स्पष्ट शब्दों में महाराणा लाखा से कहते हैं कि वे किसी भी स्थिति में किसी के अधीन नहीं रह सकते । पूरा एकांकी राष्ट्र प्रेम, मातृभूमि के प्रति बलिदान देने की भावना से ओतप्रोत है और पाठक के ह्रदय में वीर रस की भावना का संचार करता है। इसको पढ़कर पाठक के हृदय में भी मातृभूमि के प्रति त्याग और देशभक्ति की भावना उत्पन्न होना स्वाभाविक है। एकाकीकार राष्ट्रीयता की भावना को प्रस्तुत करने में पूर्णत: सफल हुआ है। जब महाराणा लाखा नीमरा के मैदान में बूँदी के राव हेमू से पराजित होकर भाग जाते हैं तभी से उनकी आत्मा उन्हें धिक्कारती रहती है। वे कहते हैं कि उनको तब तक शांति नहीं मिलेगी जब तक हाड़ाओं से बदला लेकर उन्हें परास्त न कर दें। वे हाड़ाओं को हराकर उनके बूँदी दुर्ग पर अपनी विजय का झण्डा फहराने की प्रतिज्ञा करते हैं। यद्यपि वे जानते हैं कि हाड़ाओं को पराजित करना आसान काम नहीं है। उनके सहयोगी भी उन्हें मना करते हैं किन्तु वे अपनी प्रतिज्ञा को पूरा करने में दृढ़प्रतिज्ञ हैं।

उद्देश्य – 
इस एकांकी में यह दिखाया गया है कि राजपूत अपनी मातृभूमि के लिए अपने प्राणों की बलि देने में तनिक भी संकोच नहीं करते हैं । वे अपनी मातृभूमि को किसी अन्य राज्य के अधीन नहीं देख सकते। उसको सदैव स्वतंत्र देखना चाहते हैं। उसका सदैव मान और उसकी प्रतिष्ठा चाहते हैं । पूरे एकांकी में राजपूतों की मातृभमि के प्रति कितनी अधिक निष्ठा है यही दिखाया गया है । मातृभूमि का मान उनके प्राणों से भी अधिक है। हमें भी अपनी मातृभूमि की मान-मर्यादा के लिए अपना तन-मन-धन न्यौछावर करने को तैयार रहना चाहिए। हमारे जीवन का उद्देश्य यही होना चाहिए-“पहले देश का मान, तब अपनी जान।”

शीर्षक –

इस कहानी का शीर्षक ‘मातृभूमि का मान’ सर्वथा उपयुक्त है क्योंकि पूरे एकांकी में मातृभूमि के मान को ही विशेष महत्त्व दिया गया है तथा अन्त में मातृभूमि का मान रखने के लिए ही स्वयं महाराणा का प्रमुख सिपाही वीरसिंह, जो कि एक हाड़ा है, शहीद हो जाता है।

चरित्र-चित्रण –

महाराणा लाखा –
महाराणा लाखा मेवाड़ के शासक व एकांकी ‘मातृ भूमि का मान’ के प्रमुख पात्र हैं। वे वीर तथा सच्चे देशभक्त हैं। उन्हें अपने मेवाड़ पर नाज़ है। वह उनकी दृष्टि में सरताज है। वे उसे सबसे बड़े राज्य के रूप में देखना चाहते हैं। वे बूँदी और अन्य छोटे राज्यों को अपने राज्य में मिला लेना चाहते हैं ताकि चित्तौड़ एक शक्तिशाली केन्द्र हो जाए।महाराणा एक बार युद्धभूमि में बूँदी के राजपूतों से पराजित हो चुके हैं। वे आत्माभिमानी होने के कारण अपनी पराजय सहन नहीं कर पा रहे हैं। वे इस पराजय और अपमान का बदला बूँदी के राजपूतों को हराकर बँदी के किले पर अपना झंडा फहराकर लेना चाहते हैं। वे जोश में आकर प्रतिज्ञा कर बैठते हैं ।वे चाहते हैं कि मेवाड़ एक शक्तिशाली केन्द्र बन जाए। महाराणा एक बार युद्धभूमि में बूँदी के राजपूतों से पराजित हो चुके हैं। वे आत्माभिमानी होने के कारण अपनी पराजय सहन नहीं कर पा रहे हैं। वे इस पराजय और अपमान का बदला बूंदी के राजपूतों को हराकर बूंदी के किले पर अपना झंडा फहराकर लेना चाहते हैं। वे जोश में आकर प्रतिज्ञा कर बैठते हैं कि जब तक बूँदी पर विजय प्राप्त नहीं कर लेंगे, अन्न-जल ग्रहण नहीं करेंगे। यह कठिन प्रतिज्ञा पूरी करना आसान नहीं था। अत: प्रतिज्ञा के समाधान हेतु बूँदी का एक नकली किला बनवाकर उस पर विजय प्राप्त करने का सुझाव दिया गया। परन्तु युद्ध में वास्तविकता लाने के लिए राणा के एक सिपाही वीरसिंह और उसके कुछ साथियों को, जो बूँदी के रहने वाले थे, नकली युद्ध का विरोध करने के लिए दुर्ग में नियुक्त कर दिया जाता है। परन्तु वीरसिंह अपनी जन्मभूमि का अपमान सहन नहीं कर पाता है। वह अपने साथियोँ के साथ युद्ध में शहीद हो जाता है। महाराणा लाखा को वीरसिंह और उसके साथियों के शहीद होने का अत्यन्त दुःख होता है। वे पश्चात्ताप करते हैं तथा स्वीकार करते हैं कि उन्होंने बूँदी को अपने अधीन करने की जो प्रतिज्ञा की थी, जिसके कारण इतने राजपूत मारे गये, वह अनुचित थी। वीरसिंह के शव का आदर करके उन्होंने अपनी महानता का परिचय दिया। महाराणा स्वयं वीर होने के साथ-साथ वीरों का सम्मान करना जानते हैं। अपनी भूल का पश्चाताप करने में वे पीछे नहीं हटते। अपनी गलती को स्वीकार कर वे आत्मग्लानि की आग में जलकर स्वर्ण के समान पवित्र बन जाते हैं।

राव हेमू –
राव हेमू बूँदी के शासक हैं। वे अत्यन्त स्वाभिमानी, देशभक्त, कर्त्तव्यपरायण, निर्भीक एवं सच्चे राजपूत हैं। राजपूत जाति के प्रति उन्हें गर्व है । वे अपनी बूँदी को किसी भी प्रकार किसी के अधीन नहीं देखना चाहते। बूँदी के प्रति उनके हृदय में कितना मान है यह इसी बात से ज्ञात हो जाता है जब अभयसिंह बूँदी को मेवाड़ के अधीन बताते हैं। यह बात सुनकर वे चकित हो जाते हैं और अभयसिंह से निर्भीकता के साथ कहते हैं-” हाड़ा वंश किसी की गुलामी स्वीकार नहीं करेगा, चाहे वह विदेशी शक्ति हो, चाहे वह मेवाड़ का महाराणा हो।” अभयसिंह राजपूतों को एक सूत्र में बाँधने की आवश्यकता को बताते हैं और कहते हैं कि यह माला तैयार करने की शक्ति केवल महाराणा को प्राप्त है। इस पर राव हेमू कहते हैं, “ताकत की बात न छेड़ो, अभयसिंह, प्रत्येक राजपूत को अपनी ताकत पर नाज़ है। इतने बड़े दम्भ को मेवाड़ अपने प्राणों में आश्रय न दे, इसी में उसका कल्याण है।” राव हेमू एक कुशल शासक तथा राजपूतों के गौरव के प्रतीक हैं। वे जन्मभूमि की रक्षा के लिए प्राणों की बलि देने को भी तैयार हैं। वे अपनी बूँदी को किसी भी प्रकार नीचा नहीं देख सकते। यही कारण है कि वे साहसपूर्वक कहते हैं कि जो माला महाराणा ने बनाई है उसको तोड़ने का श्रीगणेश हो गया है। राव हेमू अपनी बूँदी की रक्षा के लिए सदैव युद्ध के लिए तैयार रहते हैं। वे कभी अपने में हीनभाव नहीं लाते, वे किसी भी शक्तिशाली शासक से स्वयं को कम नहीं समझते। जब अभयसिंह अनुशासन के अभाव की बात करते हैं और कहते हैं कि राज्यों के अनुशासन के अभाव से हमारे देश के टुकड़े-टुकड़े हो जाएँगे, तब राव हेमू कहते हैं कि प्रेम का अनुशासन मानने को तो हाड़ा वंश सदा तैयार है किन्तु शक्ति का नहीं। राव हेमू के हृदय की विशालता, भावुकता तथा उनके पूरे व्यक्तित्व का पता हमें उनकी इन पंक्तियों से लगता है : “मेवाइ के महाराणा को यदि अपनी ही जाति के भाइयों पर अपनी तलवार आज़माने की इच्छा हुई है तो उससे उन्हें कोई नहीं रोक सकता। बूँदी स्वतंत्र राज्य है और स्वतंत्र रहकर वह महाराणाओं का आदर करता रह सकता है, अधीन होकर किसी की सेवा करना वह पसन्द नहीं करता।” जब वीरसिंह नकली बूँदी के लिए लड़ने वाली लड़ाई में शहीद हो जाता है और महाराणा स्वयं वीरसिंह के शव के पास बैठकर अपने अपराध को स्वीकार करते हुए क्षमा माँगते हैं और राजपूतों की वीरता का लोहा मानते हैं तब राव हेमू महाराणा से कहते हैं-महाराणा! हम युग-युग एक हैं और एक रहेंगे। आपको यह जानने की आवश्यकता थी कि राजपूतों में न कोई राजा है, कोई महाराजा; सब देश, जाति और वंश की मान-रक्षा के लिए प्राण देने वाले सैनिक हैं । हमारी तलवार अपने ही स्वजनों पर न उठनी चाहिए।’

अभयसिंह – 
अभयसिंह मेवाड़ के वफ़ादार व कर्त्तव्यपरायण सेनापति हैं। महाराणा सेनापति पर विश्वास करते हैं और उन्हें कुशल सेनापति, बुद्धिमान तथा अच्छा सलाहकार मानते हैं। वे शासन का कोई भी कार्य बिना अभयसिंह की सम्मति के नहीं करते। महाराषणा अपने हृदय की बात बूंदी के शासक राव हेमू को इन्हीं के द्वारा पहुँचवाते हैं। अभयसिंह महाराणा के संदेश को अत्यन्त सुन्दर ढंग से राव हेमू सम्मुख प्रस्तुत करते हैं और महाराणा के विचारों से राव हेमू को प्रभावित करने में कुछ कसर नहीं रखते। अभयसिंह किसी भी बात को तर्क से सिद्ध करने में कुशल हैं। जब भी महाराणा किसी क्षेत्र में हतोत्साहित होते हैं या कोई निश्चित निर्णय नहीं ले पाते तब अभयसिंह सदैव उनको उत्साहित तथा निर्णय लेने में उनकी सहायता करते हैं। जब चारणी नकली दुर्ग बनाने का सुझाव महाराणा को देती है तब अभयसिंह इस सुझाव का समर्थन करते हुए नकली दुर्ग का निर्माण करवाते हैं। अभयसिंह महाराणा के दाहिने हाथ हैं। इसका उदाहरण इन पंक्तियों से मिलता है जब महाराणा कहते हैं-” मैं महाराणा लाखा प्रतिज्ञा करता हूँ कि जब तक बूँदी के दुर्ग में ससैन्य प्रवेश नहीं करूगा, अन्न-जल ग्रहण नहीं करूँगा।” इस पर अभयसिंह महाराणा से कहते हैं कि छोटे से बूँदी दुर्ग को विजय करने के लिए इतनी बड़ी प्रतिज्ञा करने की क्या आवश्यकता है ? बूँदी को उसकी धृष्टता के लिए दण्ड दिया ही जाएगा, लेकिन हाड़ा लोग बहुत वीर हैं। युद्ध करने में वे यम से भी नहीं डरते। यह अवश्य है कि अंत में विजय हमारी ही होगी, किन्तु समय लग सकता है। इन पंक्तियों से यह बात स्पष्ट हो जाती है कि अभयसिंह एक अत्यन्त बुद्धिमान, वाक्पटु एवं कुशल सेनापति हैं। अभयसिंह शत्रु की वीरता को भी पहचानते हैं और उसकी वीरता का वर्णन महाराणा के सामने इस प्रकार करते हैं कि महाराणा यह न समझे कि वे उनसे युद्ध में हार जाएँगे। वे महाराणा से यह कहते हैं कि उनके वीर होने के कारण युद्ध काफ़ी दिन तक चल सकता है। लेकिन विजय महाराणा की ही होगी। अपने महाराणा को वे कभी नाराज़ नहीं करना चाहते। उनकी कही हुई बात को सदैव पूरा कराने में सहायक होते हैं। महाराणा की मान-प्रतिष्ठा के लिए अभयसिंह पूर्ण रूप से समर्पित हैं। इसके अतिरिक्त जब नकली दुर्ग पर युद्ध होता है तब भी अभयसिंह पूर्ण सहयोग देते हैं और नकली दुर्ग पर विजय प्राप्त करने के बाद मेवाड़ का झण्डा फहराते हैं।

शब्दार्थ –

  • विख्यात = प्रसिद्ध = well known, famous
  •  बंधुत्व = भाईचारा = brotherhood
  • काव्यमय – कवितायुक्त = poetic
  •  अधीनता = परतंत्रता = bondage
  •  असंगठित = छिन्न-भिन्न = unorganized,
  • दम्भ = अहंकार, घमण्ड = vanity, pride
  •  कल्याण = भलाई = welfare
  •  श्रीगणेश = आरम्भ = beginning
  • अनुशासन = नियम = discipline
  •  गौरवपूर्ण = सम्मानयुक्त = honourable, dignified
  •  कलंक = दोष, बदनामी = disgrace, slur
  • धमनियाँ = नसें = veins
  •  जिनकी खाल मोटी होती है = (मुहावरा) जो बेशर्म होते हैं = thick skinned people, shameless
  • उपहासजनक = हँसने योग्य, लज्जाजनक = ludicrous, disgraceful
  •  बलि = कुर्बानी = sacrifice;
  • गौरव = शक्ति, साहस = manhood
  •  ससैन्य = सेना के साथ = with an army
  •  धृष्टता = अनुचित साहस = impudence
  • भीषण-प्रतिज्ञा = भयंकर प्रतिज्ञा = extreme oath.
  • शृंखला = जंजीर, कड़ी = chain
  •  शुभचिन्तक =  भलाई चाहने वाला =  well wisher
  •  विद्वेष = दुश्मनी = enmity
  • विध्वंस= विनाश = destruction, demolition
  •  उद्दण्डता = अभद्र व्यवहार = arrogance;
  • निरीक्षण = देख-रेख = inspection
  •  वेदना = दु:ख = pain, agony
  • विवेकहीन = बुद्धिहीन unwise, foolish
  •  सिंहनाद = युद्ध की ललकार = battle-cry
  •  रण = लड़ाई = battle
  • पथ-प्रतिरोध करना = मार्ग में बाधा डालना= to oppose entry
  • वास्तविकता = यथार्थता = reality, feeling of
  • व्याघात = बाधा = obstacle
  • विलम्ब = देर =  delay
  •  निष्प्राण = प्राणरहित = lifeless
  • चुनौती = युद्ध के लिए आह्वान करना = a call for battle
  • विजय दुंदुभि =  जीत के नगाड़े = drums of victory
  • पश्चात्ताप = पछतावा = remorse
  • विकल = व्याकुल = restless
  • शहीद = देश के लिए मर जाने वाला वीर = martyr
  •  दुर्घटना = बुरी घटना = accident , mishap
  • स्वजन = अपने लोग = one’s own people
  •  पृथक् = अलग =  separate.
  • ‘प्राण जाहिं पर वचन न जाई’* = जान भले ही चली जाए लेकिन बात न जाए = better to
    lay down one’s life than break a promise
  •  क्या हमने अपनी आत्मा भी उन्हें बेच दी है क्या हम अपने स्वाभिमान से भी वंचित हो गए हैं?; = Have we sold our souls or dignity also ?
  • नमक का बदला दिया है =  अहसान चुकाया है =  have discharged the obligations of loyalty;
  • अपने वंश की आभा को क्षीण न होने देना = अपने कुल की शान को कम न होने देना = not to let the glory of one’s clan fade
  • हृदय के द्वार खोल दिए हैं = हृदय में प्रेम तथा आदर के भाव जगा दिए हैं = has generated feelings of love and respect in my
  • प्राण-पखेरू उड़ गए=  मृत्यु हो गई =  died, left for heavenly

प्रश्नोत्तर अभ्यास –

प्रश्न – 1 ” ताकत की बात न छेड़ो, अभयसिंह। प्रत्येक राजपूत को अपनी ताकत पर नाज़ है। इतने बड़े दंभ को मेवाड़ अपने प्राणों में आश्रय न दे, इसी में उसका कल्याण है। रह गई बात एक माला गूंथने की, सो वह माला तो बनी हुई है। हाँ, उस माला को तोड़ने का श्रीगणेश हो गया है।”

  1. राव हेमू अभयसिंह से ऐसा क्यों कहते हैं? इस कथन के पीछे उनका क्या आशय है ?
  2. अभयसिंह कहाँ के सेनापति हैं ? वे क्या संदेश लेकर आये हैं ?
  3. उपर्युक्त गद्यांश के आधार पर राव हेमू का चरित्र चित्रण कीजिए ।
  4. ‘इतने बड़े दंभ को मेवाड़ अपने प्राणों में आश्रय न दे’ से उनका क्या तात्पर्य है ?

उत्तर –

  1. राव हेमू अभयसिंह से ऐसा इसलिए कहते हैं क्योंकि अभयसिंह ने राव हेमू से यह कहा कि राजपूतों की छिन्न-भिन्न असंगठित शक्ति विदेशियों का सामना नहीं कर सकती, इस कारण जो छोटे-छोटे राज्य हैं वह अपनी शक्ति एक केन्द्र के अधीन रखें। बूँदी राज्य भी मेवाड़ के आश्रित रहा है। अत: बूँदी राज्य भी मेवाड़ की अधीनता स्वीकार कर ले ।
  2. अभयसिंह मेवाड़ के सेनापति हैं तथा वे बूँदी के राव हेमू के पास यह संदेश लेकर आये हैं कि अब बूँदी राज्य को मेवाड़ की अधीनता स्वीकार कर लेनी चाहिए।
  3. राव हेमू बूँदी के शासक हैं। वे अत्यन्त स्वाभिमानी, देशभक्त, कर्त्तव्यपरायण, निर्भीक सच्चे राजपूत वे हैं। अपनी जाति पर उन्हें गर्व है । अभयसिंह के संदेश को सुनकर वे निर्भीकता से कहते हैं कि हाड़ा वंश किसी की गुलामी स्वीकार नहीं करेगा। वे एक साहसी, कुशल शासक तथा राजपूतों के गौरव के प्रतीक हैं। राव हेमू कहना चाहते हैं कि मेवाड़ के महाराणा अपनी ताकत पर इतना अभिमान न करें। हर राजपूत ताकतवर है और अपनी रक्षा करने में समर्थ है ।
  4. माला गूँथने’ का अर्थ है कि आपसी वैर-भाव त्यागकर एक हो जाना। वहाँ राव हेमू कहना चाहते हैं कि राजपूत विदेशी ताकतों से लड़ने के लिए पहले ही एकजुट है।

 

प्रश्न – 2 . ” प्रेम का अनुशासन मानने को हाड़ा वंश सदा तैयार है, शक्ति का नहीं। मेवाड़ के महाराणा को यदि अपने ही जाति भाइयों पर अपनी तलवार अज़माने की इच्छा हुई है तो उससे उन्हें कोई नहीं रोक सकता। बूंदी स्वतंत्र राज्य है और स्वतंत्र रहकर वह महाराणाओं का आदर करता रह सकता है। अधीन होकर किसी की सेवा करना वह पसन्द नहीं करता ।”

  1. उपर्युक्त वाक्य किसने, किससे, कब और क्यों कहे हैं ? वक्ता का संक्षिप्त परिचय दीजिए।
  2. किस स्थिति में रहकर बूँदी महाराणाओं का आदर कर सकता है ? हांड़ा वंश किस प्रकार के अनुशासन को मानने को तैयार है और क्यों ?
  3. बूँदी राज्य किस बात को पसन्द करता है ? यह पसंद किस मनोवृत्ति की परिचायक है ? समझाकर लिखिए।
  4. इस अवतरण के आधार पर ‘मातृभूमि’ के महत्त्व पर अपने विचार प्रकट कीजिए।

प्रश्न – 3 . जिनकी खाल मोटी होती है, उनके लिए किसी भी बात में कोई भी अपयश, कलक या अपमान का कारण नहीं होता। किन्तु जो आन को प्राणों से बढ़कर समझते हैं, वे पराजय का मुख देखकर भो जोवित रहें, यह कैसी उपहासजनक बात है।

  1. उपर्युक्त वाक्य किसने, किससे कहे हैं ? वक्ता का संक्षिप्त परिचय दीजिए।
  2. ‘खाल मोटी होना से आप क्या समझते हैं ? अपयश, कलंक और अपमान का ध्यान किनको नहीं होता ? और क्यों ?
  3. ‘यह कैसी उपहासजनक बात है’ यह कौन-सी बात है और क्यों तथा किनके लिए कही गई है ?
  4. देशभक्त और वीर पुरुष पराजय का मुख क्यों नहीं देखना चाहता तथा यह उसकी कौन-सी विशेषता का परिचय देता है ?

प्रश्न – 4. उनके पौरुष की परीक्षा का दिन आ पहुँचा है। महारावल बाप्पा का वंशज में प्रतिज्ञा करता हूँ कि जब तक बूँदी के दुर्ग में ससैन्य प्रवेश नहीं करूँगा, अन्न-जल ग्रहण नहीं करूँगा।

  1. उपर्युक्त वाक्य किसने, किससे कहे हैं ? श्रोता ने इसका क्या उत्तर दिया ?
  2. किनके पौरुष की परीक्षा का दिन आ पहुँचा है ? ऐसा प्रसंग क्यों उत्पन्न हुआ ?
  3. किसका वंशज क्या प्रतिज्ञा करता है और क्यों ?
  4. ‘पौरुष’ का क्या अभिप्राय है ? यह किसके लिए आया है ? समझाकर लिखिए ।

प्रश्न – 5 . ” बूंदी को उसकी धुष्टता के लिए तो दण्ड दिया ही जाएगा, लेकिन हाड़ा लोग कितने वीर हैं। युद्ध करने में वे यम से भी नहीं डरते।”

  1. उपयुक्त वाक्य किसने, किससे कहे हैं ? वे वाक्य किस संदर्भ में कहे गए हैं ?
  2. हाड़ा कौन हैं ? इनकी क्या विशेषता है ? ‘बूँदी को दण्ड दिया जाएगा’ इससे क्या अभिप्राय है ?
  3. ‘धृष्टता’ से क्या अभिप्राय है ? धृष्टता से मनुष्य को क्या हानियाँ होती हैं ? समझाकर लिखिए।
  4. ‘यम से भी नहीं डरते’ से क्या तात्पर्य है ? कौन यम से भी नहीं डरते और क्यों ? संक्षेप में लिखिए।

प्रश्न – 6. “ महाराणा- आप यह क्या कहते हैं सेनापति ? क्या कभी आपने सुना है कि सूर्यवंश में पैदा होने वाले पुरुष ने अपनी प्रतिज्ञा को वापस लिया हो ? ‘प्राण जाहि पर चचन न जाई यह हमारे जीवन का मूल मंत्र है।”

  1.  इस अवतरण के आधार पर महाराणा के विचारों को लिखिए।
  2. ‘प्राण जाहिं पर वचन न जाई’ का क्या अर्थ है ? यह कथन कहाँ से लिया गया है ? इसमें कौन-सी मनोवृत्ति व्यक्त होती है ?
  3. महाराणा ने क्या प्रतिज्ञा की थी ? उन्होंने ऐसी प्रतिज्ञा क्यों की थी ? महाराणा के सेनापति का क्या नाम है ? उन्होंने क्या सुझाव दिया था ?
  4. लेखक के अनुसार सूर्यवंश पैदा होने वाले की क्या विशेषताएँ हैं ? उदाहरण सहित लिखिए।

प्रश्न – 7. “तुम कुछ गा रही श्री चारणी ? तुम संपूर्ण राजस्थान को एकता की श्रृंखला में बाँधकर देश की स्वाधीनता के लिए कुछ करने का आदेश दे रहीं थीं किन्तु मैं तो उस श्रृंखला को तोड़ने जा रहा हूँ। दो जातियों में जानी दुश्मनी पैदा करने जा रहा हूँ।”

  1.  उपर्युक्त वाक्य किसने किससे कहे हैं ? चारणी के विषय में संक्षेप में लिखिए ।
  2. चारणी के गाने में क्या सन्देश था उसके गाने का महाराणा पर क्या प्रभाव पड़ा ?
  3. मैं तो उस श्रृंखला को  तोड़ने जा रहा हूँ। से महाराणा का क्या अभिप्राय है ? ऐसा होने का क्या कारण था ?
  4. जातियों में जानी दुश्मनी क्यों पैदा होती है ? इससे देश की अखण्डता पर क्या प्रभाव पड़ता है ?

प्रश्न – 8. “आपके विवेक पर सबको विश्वास है। मैं आपसे निवेदन करने आई हूँ कि यद्यपि समय के फेर से आज हाड़ा शक्ति और साधनों में मेवाड़ के उन्नत राज्य से छोटे हैं, फिर भी वे वीर हैं, मेवाड़ को उसकी विपत्ति के दिनों में सहायता देते रहे हैं।”

  1. उपर्युक्त वाक्य किसने, किससे कहे हैं ? ये वाक्य किस प्रसंग में कहे गए हैं ?
  2. कौन मेवाड़ को उसकी विपत्ति के दिनों में सहायता देते रहे हैं ?
  3. चारणी की बात का महाराणा ने क्या उत्तर दिया ?
  4. उपयुक्त अवतरण के आधार पर चारणी के विषय में अपने विचार व्यक्त कीजिए।

प्रश्न – 9. “महाराणा- अच्छा, अभी तो मैं नकली दुर्ग बनाकर उसका विध्वंस करके अपने व्रत का पालन करूगा, किन्तु हाड़ाओं को उनकी उद्दण्डता का दंड दिए बिना मेरे मन को संतोष न होगा। सेनापति, नकली दुर्ग बनाने का प्रबन्ध करें।”

  1. महाराणा किस प्रकार अपने व्रत का पालन करना चाहते हैं ? वे अपने सेनापति को क्या आज्ञा देते हैं ?
  2. महाराणा हाड़ाओं को क्यों दण्ड देना चाहते हैं ? इसके पीछे महाराणा की कौन-सी भावना है ?
  3. इस अवतरण के आधार पर महाराणा के चरित्र के बारे में छः-सात पंक्तियाँ लिखिए।
  4. नकली दुर्ग बनाने का सुझाव किसने दिया था ? ऐसा सुझाव क्यों दिया गया था ?

प्रश्न – 10. “इस मिट्टी के दुर्ग को मिट्टी में मिलाने से मेरी आत्मा को संतोष नहीं होगा, लेकिन अपमान की वेदना में जो विवेकहीन प्रतिज्ञा मैंने कर डाली थी, उससे तो छुटकारा मिल ही जाएगा।”

  1. उपर्युक्त वाक्य किसने, किससे कहे हैं ? वे किस प्रसंग में कहे गए हैं ?
  2. विवेकहीन प्रतिज्ञा क्या थी ? यह विवेकहीन क्यों थी ?
  3. महाराणा की वेदना क्या थी ? स्पष्ट कीजिए ।
  4. मिट्टी  के दुर्ग को मिट्टी में मिलाने से संतोष क्यों नहीं होगा ? किन कार्यों के करने से आत्मा को संतोष होता है ?

प्रश्न – 11. “अभयसिंह – हाँ, खेल में भी तो कुछ वास्तविकता आनी चाहिए। मैंने सोचा है दुर्ग के भीतर अपने ही कुछ सैनिक रख दिए जाएँगे, जो बन्दूकों से हम लोगों पर छूँछे वार करेंगे।”

  1. अभयसिंह किससे, कब, कहाँ और किस संदर्भ में वार्तालाप कर रहे हैं ?
  2. खेल में भी वास्तविकता लाने के लिए अभयसिंह ने क्या सोचा था ?
  3. इस प्रकार नकली दुर्ग का विध्वंस करके प्रतिज्ञा का पालन करना कहाँ तक उचित है ? अपने विचार व्यक्त कीजिए।
  4. ‘छूँछे वार’ से क्या तात्पर्य है ? हाड़ा सैनिकों ने इस नकली युद्ध में अपनी कौन-सी भावना का परिचय दिया ? इस अवतरण के आधार पर अभयसिंह के चरित्र के बारे में अपने विचार व्यक्त कीजिए।

प्रश्न – 12 . “ तुम जानते हो कि महाराणा आज इस गढ़ को जीतकर अपनी प्रतिज्ञा पूरी करना चाहते हैं। किन्तु क्या हम लोग अपनी जन्मभूमि का अपमान होने देंगे ? यह हमारे वंश के मान का मंदिर है। क्या हम इसे मिट्टी में मिलने देंगे।”

  1. उपर्युक्त वाक्य किसने, किससे कहे हैं ? वक्ता का परिचय दीजिए। महाराणा किस प्रकार अपनी कौन सी प्रतिज्ञा पूरी करना चाहते हैं ?
  2. उपर्युक्त अवतरण में जन्मभूमि के प्रति किस प्रकार के भाव प्रकट किए गए हैं ?
  3. मिट्टी में क्या नहीं मिलने दिया जाएगा ? समझाकर लिखिए। इसमें छिपी भावना स्पष्ट कीजिए।
  4. इस अवतरण को पढ़कर आपके मन में देश के प्रति क्या भाव उत्पन्न होते हैं ?

प्रश्न – 13. “वीरसिंह- धिक्कार है तुम्हें ! नकली बूँदी भी हमें प्राणों से अधिक प्रिय है। जिस जगह एक भी हाड़ा है, वहाँ बूँदो का अपमान आसानी से नहीं किया जा सकता। आज महाराणा आश्चर्य के साथ देखेंगे कि यह खेल केवल खेल ही नहीं रहेगा। यहाँ की चप्पा-चप्या भूमि सिसोदियों और हाड़ाओं के खून से लाल हो जाएगी।”

  1. वीरसिंह ने ये वाक्य कब, किससे और क्यों कहे हैं ? उनके साथियों पर इन शब्दों का क्या प्रभाव पड़ा ?
  2. वीरसिंह किसे धिक्कार रहे हैं और क्यों ? समझाकर लिखिए।
  3. नकली बूँदी के दुर्ग के प्रति वीरसिंह के क्या विचार हैं ? उनके विचारों से आप कहाँ  तक सहमत हैं ?
  4. महाराणा आश्चर्य के साथ क्या देखेंगे ? उन्हें आश्चर्य क्यों होगा ?

प्रश्न – 14. “लेकिन सरदार, हम लोग महाराणा के नौकर हैं। क्या महाराणा के विरुद्ध तलवार उठाना हमारे लिए उचित है ? हमारा शरीर महाराणा के नमक से बना है। हमें उनकी इच्छा में व्याघात नहीं पहुँचाना चाहिए।”

  1. उपर्युक्त वाक्य किसने, किससे कहे हैं ? महाराणा के विरुद्ध तलवार उठाना क्यों उचित नहीं है ? यहाँ किस भावना का परिचय मिलता है ?
  2. ‘हमारा शरीर महाराणा के नमक से बना है’ से क्या अभिप्राय है ? यह कैसे व्यवहार के प्रति प्रेरित करता है ?
  3. ‘इच्छा में व्याघात नहीं पहुँचाना चाहिए’ से क्या तात्पर्य है ? यहाँ किसकी और कौन-सी इच्छा की चर्चा है ? स्पष्ट कीजिए।
  4. इस अवतरण में किस प्रकार के भाव व्यक्त किए गए हैं ? स्पष्ट कोजिए।

प्रश्न – 15. “जिस जन्मभूमि को धूल में खेलकर हम बड़े हुए हैं, उसका अपमान भी कैसे सहन किया जा सकता है ? हम महाराणा के नोकर हैं तो क्या हमने अपनी आत्मा भी उन्हें बेच दो है? जब कभी मेवाड़ की स्वतंत्रता पर आक्रमण हुआ है, हमारी तलवार ने उनके नमक का बदला दिया है।

  1. वीर सिंह किसकी धूल में खेलकर बड़ा हुआ है ? ‘घूल में खेलकर बड़े होने’ से क्या तात्पर्य है ?
  2. महाराणा के प्रति वीरसिंह के कैसे विचार हैं ? मेवाड़ पर आक्रमण होने पर वीरसिंह की क्या प्रतिक्रिया रही ?
  3. ‘नमक का बदला देने’ से क्या अभिप्राय है ? नमक का क्या अर्थ है ? समझाइए।
  4. इस अवतरण के आधार पर वीरसिंह पर टिप्पणी लिखिए।

प्रश्न – 16. “निश्चय ही जहाँ पर बूँदी है, वहाँ पर हाड़ा है और जहाँ पर हाड़ा है, वहाँ पर बूँदी है। कोई नकली बूँदी का भी अपमान नहीं कर सकता। जन्मभूमि हमें प्राणों से भी अधिक प्रिय है।”

  1. उपर्युक्त वाक्य किसने, किससे कहे हैं ? ‘नकली बूँदी’ से क्या तात्पर्य है ?
  2. वीरसिंह के साथियों में जन्मभूमि के प्रति क्या भावना है ?
  3. ‘जहाँ पर बूँदी है, वहाँ पर हाड़ा है’, इसके पीछे क्या भावना छिपी हुई है ? इसका परिचय हाड़ा सैनिकों ने कैसे दिया ?
  4. बूँदी राज्य के प्रति प्रेम भाव को किस प्रकार वर्णित किया गया है ? जन्मभूमि के महत्त्व पर उदाहरण सहित संक्षेप में प्रकाश डालिए।

प्रश्न – 17. “महाराणा-चारणी, क्यों पश्चात्ताप से विकल प्राणों को तुम और दुःखी करती हो ? न जाने किस बुरी सायत में मैंने बूँदी को अपने अधीन करने का निश्चय लिया था। वीरसिंह की वीरता ने मेरे हृदय के द्वार खोल दिए हैं, मेरी आँखों पर से पर्दा हटा दिया है। मैं देखता हूँ कि ऐसी वीर जाति को अधीन करने की अभिलाषा करना पागलपन है।”

  1. महाराणा क्यों दुःखी हैं ? किस कारण महाराणा ने बूँदी को अपने अधीन करने का निश्चय किया था ?
  2. किसकी वीरता ने महाराणा के हृदय के द्वार खोल दिए तथा आँखों पर से पर्दा हटा दिया ? ‘हृदय के द्वार खोलना’ तथा ‘आँखों पर से पर्दा हटाने’ से क्या तात्पर्य है ?
  3. वीर जाति को अधीन करने की अभिलाषा को पागलपन क्यों कहा है ?
  4. ‘मातृभूमि का मान’ एकांकी का मूल उद्देश्य क्या है ? संक्षेप में लिखिए।

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मेरे विचार……. दीपक की लौ आकार में भले ही छोटी हो, लेकिन उसकी चमक और रोशनी दूर तक जाती ही है। एक अच्छा शिक्षक वही है जिसके पास पूछने आने के लिए छात्र उसी प्रकार तत्पर रहें जिस प्रकार माँ की गोद में जाने के लिए रहते हैं। मेरे विचार में अध्यापक अपनी कक्षा रूपी प्रयोगशाला का स्वयं वैज्ञानिक होता है जो अपने छात्रों को शिक्षित करने के लिए नव नव प्रयोग करता है। आपका दृष्टिकोण व्यापक है आपके प्रयास सार्थक हैं जो अन्य अध्यापकों को भी प्रेरित कर सकते हैं… संयोग से कुछ ऐसी कार्ययोजनाओं में प्रतिभाग करने का मौका मिला जहाँ भाषा शिक्षण के नवीन तरीकों पर समझ बनी। इस दौरान कुछ नए साथियों से भी मिलना हुआ। उनसे भी भाषा की नई शिक्षण विधियों पर लगातार संवाद होता रहा। साहित्य में रुचि होने के कारण हमने अब शिक्षा से सम्‍बन्धित साहित्य पढ़ना शुरू किया। कोई बच्चा बहुत से लोकप्रिय तरीके से सीखता है तो कोई बच्चा अपने विशिष्ट तरीके से किसी विषय को ग्रहण करता है और अपने तरीके से उस पर अपनी समझ का निर्माण करता है। इसी सन्‍दर्भ में बच्चों के मनोविज्ञान को समझने की जरूरत है। मनोविज्ञान को मानसिक प्रक्रियाओं, अनुभवों और व्यवहार के वैज्ञानिक अध्ययन के रूप में देखा जाता है। इसी नजरिये से शिक्षा मनोविज्ञान को भी क्लासरूम के व्यावहारिक परिदृश्य के सन्‍दर्भ में देखने की आवश्यकता है। यहाँ गौर करने वाली बात है, “स्कूल में बच्चों को पढ़ाते समय केवल कुछ बच्चों पर ध्यान देने से हम बच्चों का वास्तविक आकलन नहीं कर पाते कि वे क्या सीख रहे हैं? उनको किसी बात को समझने में कहाँ दिक्कत हो रही है? किस बच्चे को किस तरह की मदद की जरूरत है। किस बच्चे की क्या खूबी है। किस बच्चे की प्रगति सही दिशा में हो रही है। कौन सा बच्चा लगातार बेहतर प्रदर्शन कर रहा है और उसे आगे बढ़ने के लिए स्वतंत्र रूप से पढ़ने और काम करने के ज़्यादा मौके देने की जरूरत है।” एक शिक्षक को बच्चों के आँसू और बच्चों की खुशी दोनों के लिए सोचना चाहिए। बतौर शिक्षक हम बच्चों के पठन कौशल , समझ निर्माण व जीवन के प्रति एक व्यापक दृष्टिकोण का निर्माण कर रहे होते हैं। अपने व्यवहार से बच्चों की जिंदगी में एक छाप छोड़ रहे होते हैं। ऐसे में हमें खुद को वक्‍त के साथ अपडेट करने की जरूरत होती है। इसके लिए निरन्‍तर पढ़ना, लोगों से संवाद करना, शिक्षा के क्षेत्र में होने वाले भावी बदलावों को समझना बेहद जरूरी है। ताकि आप समय के साथ कदमताल करते हुए चल सकें और भावी नागरिकों के निर्माण का काम ज्यादा जिम्मेदारी और सक्रियता के साथ कर सकें। इस बारे में संक्षेप में कह सकते हैं कि बतौर शिक्षक हमें खुद भी लगातार सीखने का प्रयास जारी रखना चाहिए। आज के शिक्षण-अधिगम प्रक्रिया में सूचना और तकनीक का इस्तेमाल बढ़ गया है। पुस्तक जहाँ पहले ज्ञान का प्रमाणिक स्रोत और संसाधन हुआ करता था आज वहाँ तकनीक के कई साधन मौजूद हैं। आज विद्‌यार्थी किताबों की श्याम-श्वेत दुनिया से बाहर निकलकर सूचना और तकनीक की रंग-बिरंगी दुनिया में पहुँच चुका है, जहाँ माउस के एक क्लिक पर उसे दुनिया भर की जानकारी दृश्य रूप में प्राप्त हो जाती है। एक शिक्षक होने के नाते यह ज़िम्मेदारी होनी चाहिए कि हम समय के साथ खुद को ढालें और शिक्षण-अधिगम प्रक्रिया को सुचारू रूप से गतिशील बनाए रखने के लिए आधुनिक तकनीक के साधनों का भरपूर प्रयोग करें। यदि आप अपनी कक्षा में सूचना और तकनीक का इस्तेमाल करते हुए विद्‌यार्थी-केन्द्रित शिक्षण को प्रोत्साहित करते हैं तो आपकी कक्षा में शैक्षणिक वातावरण का विकास होता है और विद्‌यार्थी अपने अध्ययन में रुचि लेते हैं। यह ब्लॉग एक प्रयास है जिसका उददेश्य है कि इतने वर्षों में हिंदी अध्ययन तथा अध्यापन में जो कुछ मैंने सीखा सिखाया । उसे अपने विद्यार्थियों और मित्रों से साझा कर सकूँ यह विद्यार्थियों तथा हमारे बीच एक अखंड श्रृंखला का कार्य करेगा। मै अपनी ग़ैरमौजूदगी में भी अपने ज़रूरतमंद विद्यार्थियों के बहुत पास रहूँगा …… मेरा प्रयास है कि अपने विद्यार्थी समुदाय तथा कक्षा शिक्षण को मैं आधुनिक तकनीक से जोड़ सकूँ जिससे हर एक विद्यार्थी लाभान्वित हो सके …