लेखक परिचय –

भारतभूषण अग्रवाल (1910-1975) भारतभूषण अग्रवाल एक प्रतिभावान लेखक थे। वे प्रथमतः कवि थे लेकिन नाटक, उपन्यास, आलोचना आदि सभी क्षेत्रों में उन्होंने ख्याति प्राप्त की। वह गम्भीर विचारधारा को मनमोहक रूप से प्रस्तुत करने में सक्षम थे। ‘महाभारत की एक साँझ’ में विषयवस्त को एक नए ढंग से प्रस्तुत किया गया है। प्रस्तुत एकांकी  में लेखक ने दुर्योधन का पक्ष प्रस्तुत किया है। उन्होंने दिखाया है कि उसके अनुसार पांडवों की महत्त्वाकांक्षा भी महाभारत के युद्ध का कारण थी।

कथानक – 

भारतभूषण द्वारा रचित ‘महाभारत की एक साँझ’ एक श्रेष्ठ एकांकी है । इस एकांकी द्वारा लेखक की बहुमुखी प्रतिभा के दर्शन होते हैं। भारतभूषण अग्रवाल न केवल नाटक के क्षेत्र में बल्कि उपन्यास, , निबन्ध, आलोचना आदि सभी क्षेत्रों में अपना अग्रणी स्थान रखते हैं। कठिन से कठिन प्रसंग सरलता से प्रस्तुत करना आपकी विशेषता है। प्रस्तुत एकांकी में लेखक के अनुसार महाभारत के युद्ध के लिए केवल कौरव ही दोषी नहीं थे, पाण्डवों की महत्वाकांक्षा भी युद्ध में हुए भीषण रक्तपात  कारण रही थी।

कुरुक्षेत्र के निकट द्वैतवन के जलाशय का किनारा है, संध्या का समय है। धृतराष्ट्र दुःख प्रकट करते हुए संजय से कहते हैं कि यह किसके पापों का परिणाम है, किसकी भूल थी , जिसके कारण आज उन्हें इस दारुण दुःख का सामना करना पड़ रहा है, संजय धृतराष्ट्र को सान्त्वना देता है कि महाराज, जो हो चुका उस पर चिन्ता करना व्यर्थ है।धृतराष्ट्र यह भलीभाँति जानते हैं कि आत्मरक्षा का कोई उपाय न देखकर महाबली सुयोधन (दुर्योधन) द्वैतवन के सरोवर में घुस गए हैं और उसके जलस्तम्भ में छिपकर बैठे रहते हैं पर किसी प्रकार पाण्डवों को इसकी सूचना मिल जाती है और वे तत्काल रथ पर चढ़कर वहा पहुँच जाते हैं। वहाँ पहुँचकर सर्वप्रथम भीम युधिष्ठिर से कहते हैं-महाराज ! यही द्वैतवन का सरोवर है। अहेरी कहते थे कि उन्होंने दुर्योधन को इसी जल में छिपते हुए देखा है। युधिष्ठिर दुर्योधन को निकालने के लिए भीम को बुलाते हैं और दुर्योधन से जल में से निकलने को कहते हैं। युधिष्ठिर – ‘ओ पापी ! अरे ओ कपटी, दुरात्मा दुर्योधन ! क्या स्त्रियों की भाँति वहाँ जल में छुपा बैठा है। बाहर निकल आ। देख, तेरा काल तुझे ललकार रहा है।’ इसके बाद भीम ने दुर्योधन से कहा कि वह (दुर्योधन) अपने सहयोगियों की हत्या का कलंक अपने माथे पर लगाकर कायरों की भाँति अपने प्राण बचाता फिरता है, उसे लज्जा आनी चाहिए! इस पर युधिष्ठिर भीम से कहते हैं, इस पापी से तुम लज्जा की बात करते हो जिसने अपने भाइयां को भी जीवित जलवा देने में तनिक हिचकिंचाहट नहीं की। इस प्रकार आरम्भ से अन्त तक गंता । माध्यम से नाटककार ने पूरे महाभारत के युद्ध को प्रसंग के रूप में पाठकों के सामने प्रस्तुत किया है । सभी संवाद एक दूसरे के ऊपर लगाए गए आरोपों, प्रत्यारोपों से ओत-प्रोत हैं। युधिष्ठिर अपने को निर्दोष मानता है, दुर्योधन अपने को निर्दोष मानता है।दुर्योधन अब अकेला है। वह युद्ध नहीं करना चाहता किन्तु भीम और युधिष्ठिर यह चाहते हैं कि वह अभी युद्ध करे। दुर्योधन अकेले न लड़ने के लिए अपनी वकालत करता है कि तुम निहत्थे पर वार करना चाहते हो । उस पर यह कहा गया कि नहीं, तुम्हें भी गदा दी जाती है। अंत में श्रीकृष्ण के संकेत पर भीम ने दुर्योधन की जंघा पर भीषण प्रहार किया। दुर्योधन के आहत होकर चीत्कार करते हुए गिर पड़ने के बाद भी युधिष्ठिर और दुर्योधन में प्रभावी संवाद चलते रहते हैं और अंत में संध्या समय दुर्योधन का अंत हो जाता है।

महत्त्वपूर्ण मुद्दे –

  • लेखक ने संवादों के द्वारा पाठक के सम्मुख दुर्योधन के पक्ष को सामने रखा है।
  • लेखक ने युधिष्ठिर और दुर्योधन में संवाद कराकर यह दर्शाने का प्रयत्न किया है कि पाण्डव भी कौरवों से कम महत्त्वाकांक्षी न थे।
  • दुर्योधन घायल होकर युद्धभूमि से भाग खड़ा हुआ था और ढ्वैतवन के सरोवर में जाकर छिप गया था । तब पांडव उसे युद्ध करने के लिए सामने आने को कहते हैं।
  • दुर्योधन अपने तरकों द्वारा पांडवों को दोषी साबित करने का प्रयत्न करता है।
  • वह यह प्रमाणित करना चाहता है कि पांडव हो युद्ध के लिए तत्पर हैं क्योंकि वे राज्य प्राप्त करना चाहते हैं।’
  • इस रक्तरंजित सिंहासन पर बैठकर राज्य करने की मेरी कोई इच्छा नहीं है। तुम निश्चिन्त मन से जाओ और राज्य भोगो। सुयोधन तो वन में जाकर भगवद्भक्ति में दिन बिताएगा।”
  • इस प्रकार दुर्योधन कूटनीति का सहारा लेकर अपने प्राणों की रक्षा करना चाहता है। लेकिन अब पांडव उसके सभी षड्यंत्रों तथा कूटनीतियों को भलीभाँति समझने लगे हैं।
  • वह जानते हैं कि घावों के भर जाने पर वह दुबारा सेना संगठित करके युद्ध करने का प्रयास करेगा ।
  • भाषा विषयवस्तु के अनुकूल है । कही-कहीं कठिन शब्दों का प्रयोग अवश्य हुआ है किन्तु कथानक को देखते हुए वे बोझिल नहीं बन पाए हैं।
  • लेखक के संवादों में कहीं-कहीं दार्शनिकता के भी दर्शन होते हैं।
  • युधिष्ठिर तथा दुर्योधन दोनों के संवाद विद्वतापूर्ण हैं और उनकी अभिव्यक्ति भी प्रभावी बन पड़ी है।
  • इस प्रकार ‘महाभारत की एक सॉँझ’ एक उत्कृष्ट एकांकी है।

एकांकी का उद्देश्य –

भारतभूषण द्वारा रचित एकांकी ‘महाभारत की एक सॉझ’ में नाटककार ने संवादों द्वारा सम्पूर्ण महाभारत का जो सार प्रस्तुत किया है वह सराहनीय है। वैसे तो सम्पूर्ण महाभारत मानव जीवन को यह महत्त्वपूर्ण संदेश देती है कि परिवार में कभी भी घर या सम्पत्ति को लेकर कुल में अथवा भाइयों में वैमनस्य, ईष्ष्या अथवा द्वेष भाव नहीं होना चाहिए। धन अथवा सम्पत्ति को लेकर एक दूसरे में त्याग की भावना होनी चाहिए। त्याग और सहनशीलता का अभाव ही युद्ध का कारण है। ‘महाभारत की एक साँझ’ का उद्देश्य यही है कि कितनी ही क्रूरता, कूटनीतिज्ञता और निर्दयता के साथ अपने भाइयों के साथ युद्ध किया जाए, अंत में जिसने कूटनीतिज्ञता एवं क्रूरता के द्वारा भाइयों से युद्ध किया है उसी का अंत पहले होता है।

शीर्षक की सार्थकता – 

एकांकीकार ने ‘महाभारत की एक साँझ’ शीर्षक का भी उचित निर्वाह किया है । ‘यथा नाम तथा गुण’ की उक्ति यहाँ चरितार्थ होती है। जिस प्रकार एक दिवस के अंत को हम ‘साँझ’ के नाम से सम्बोधित करते हैं उसी प्रकार से महाभारत में दुर्योधन का अंत ‘महाभारत की साँझ’ का प्रतीक है।महाभारत एक ऐतिहासिक धार्मिक ग्रन्थ है। समय-समय पर साहित्यकारों ने इस पर टिप्पणियाँ लिखी हैं एवं नाटककारों ने इसका मंचन भी किया है। यह ग्रन्थ धर्म एवं राजनीति से ओतप्रोत है। इस ग्रंथ में पात्रों की भरमार है, फिर भी प्रमुख पात्रों में कृष्ण, भीम, धृतराष्ट्र, दुर्योधन, विदुर, संजय, युधिष्ठिर, अर्जुन, नकुल, सहदेव आदि हैं। महाभारत की कथा इन पात्रों के इर्द-गिर्द घूमती है। भारतभूषण अग्रवाल द्वारा रचित ‘महाभारत की एक साँझ’ एक प्रभावी एवं महत्त्वपूर्ण एकांकी है। नाटक के क्षेत्र में यह एकांकी अपना विशेष स्थान रखता है। संवादात्मक शैली के द्वारा लेखक ने महाभारत के इतने बड़े कलेवर को अत्यन्त सूक्ष्म रूप में प्रस्तुत किया है जो अपने आप में सराहनीय है।

चरित्र-चित्रण –

युधिष्ठिर –

दुर्योधन एवं युधिष्ठिर ही मुख्य पात्रों में गिने जाते हैं। युधिष्ठिर राजनीति एवं धर्मप्रधान पात्र हैं। अपनी विनम्रता और धर्मपरायणता के कारण ही स्वयं उन्हें एवं उनके भाइयों को बहुत कष्ट उठाने पड़े, जैसे जुए में हार, राज्य सम्मान के कारण द्रौपदी को दाँव पर लगा देना आदि। उन्हें वन का कष्ट भी भोगना  पड़ता है। युधिष्ठिर पाण्डव परिवार के ज्येष्ठ पुत्र थे, उनके स्वभाव एवं सद्गुणों के कारण परिवार के बड़े लोग उनसे बहुत स्नेह करते थे। दुर्योधन जब युधिष्ठिर के साथ अनुचित व्यवहार करता है तो दूसरे भाइयों को उसका व्यवहार सहन नहीं होता। तब भी अपने सहनशील और शान्त स्वभाव के कारण वह भाइयों को समझा-बुझाकर शान्त कर देते हैं। किसी – किसी संदर्भ में तो युधिष्ठिर के चरित्र में श्रीराम के गुणों का आभास होता है । इस एकांकी में युधिष्ठिर एवं दुर्योधन के बीच कटु वार्तालाप होता है। दुर्योधन द्वैत वन के सरोवर में छिप कर जलस्तम्भ में बैठ जाता है। जब पाण्डवों को इस बात की जानकारी होती है तब युधिष्ठिर तथा भीम सरोवर के समीप जाते हैं । वहाँ जाकर युधिष्ठिर उसे युद्ध के लिए ललकारते हैं।वे उसे स्त्री, कायर आदि कहकर पुकारते हैं क्योंकि दुर्योधन के प्रति पाण्डवों के हृदय में विष ज्वाला भड़क रही है। द्रौपदी का भरी सभा में अपमानित होना तथा अभिमन्यु की मृत्यु आदि अनेक प्रसंग हैं जो पाण्डवों को व्यथित कर रहे हैं। ऐसे समय में भी युधिष्ठिर अपने संयम को नहीं टूटने देते किन्तु दुर्योधन को जब युधिष्ठिर के द्वारा कहे हुए शब्द सहन नहीं होते तब दुर्योधन युधिष्ठिर से युद्ध करने को कहता है किन्तु युधिष्ठिर उसके निहत्था होने के कारण उससे कहते हैं कि वह जिस अस्त्र से लड़ना चाहे बता दे तथा केवल एक व्यक्ति ही उससे युद्ध करेगा । यहाँ पर युधिष्ठिर की धार्मिक तथा मानवीय भावनाओं का ज्ञान होता है। यह सब देखते हुए युधिष्ठिर पराक्रमी, निश्छल, सहृदयी, नीतिनिपुण तथा धर्मनिष्ठ पात्र है।

दुर्योधन –

दुर्योधन प्राचीन हस्तिनापुर के कुरुवंशीय राजा धृतराष्ट्र के सौ पुत्रों में सबसे बड़े थे तथा वह अपने चचेरे भाई पांडवों से बहुत विद्वेष रखते थे। वह महाभारत में खलनायक के रूप में जाने जाते हैं। इनके पिता अंधे थे जो पुत्र स्नेह में पागल थे । पुत्र को राज्य दिलवाने के लिए धृतराष्ट्र दुर्योधन की किसी भी अनुचित कूटनीति में सहयोग करने में संकोच नहीं करते हैं। धृतराष्ट्र की दुर्बलता उनका पुत्र स्नेह है। दुर्योधन इस बात को भाप जाता है। वह अपने पिता की इस कमज़ोरी का पूरा लाभ उठाता है। अनुचित प्रकार की विधियों एवं षड्यंत्रों से राज्य लेने के लिए वह पाण्डवों को अनेक प्रकार के कष्ट देता है। वह अत्यन्त क्रूर तथा निर्दयी व्यक्ति है। वह बहुत अहंकारी है, अपने कुल में किसी का सम्मान करना नहीं जानता। उसकी निगाह में बड़े-छोटे सभी बराबर हैं। उसकी क्रूरता, निर्दयता अपनी चरम सीमा पर पहुँच जाती है जब वह सभी पूज्य एवं श्रेष्ठ व्यक्तियों तथा अपने पिता के सामने दरबार में द्रौपदी का अपमान कर उसका चीरहरण करवाने का प्रयास करता है। इस प्रकार के व्यवहार को इतिहास कभी भी क्षमा नहीं करेगा। उसी की कूटनीति से पाण्डवों को बनवास भुगतना पड़ा। उसने पाण्डवों को वनवास में भी शांति से नहीं बैठने दिया। पूरे महाभारत में उसके दुष्कृत्यों की झाँकी है।दुर्योधन अंत तक कूटनीतियों तथा षड्यत्रों का सहारा लेता हुआ पाण्डवों से टक्कर लेता रहता है।

शब्दार्थ – 

परिणाम = नतीजा = result, outcome
भीषण = डरावना = terrible
विषफल = बुरा फल = harmful result
पुत्रस्नेह = पुत्र के प्रति प्रेम = affection for a son
शोक करना = दु:ख मनाना = lament, to mourn
व्यर्थ = बेकार = useless, of no avail
आत्मरक्षा = अपनी रक्षा = self defense, self protection
सुयोधन=युद्ध करने में कुशल =  one who fights well;
सूचना मिल गई = खबर प्राप्त हो गई = received information
तत्काल = तुरन्त = immediately
सरोवर = झील = lake, pond
कपटी = छल करने वाला = a deceitful person;
दुरात्मा = दुष्ट आत्मा वाला व्यक्ति wicked soul
काल = मृत्यु  =  death
सहयोगी = साथी = companion
हत्या = वध = murder
कलंक = लांछन = blemish
कायर = डरपोक = coward
लज्जा = शर्म =  shame
अनहोनी = असंभव = improbable
अपमानित करना = लज्जित करना = to insult;
गर्व चूर नहीं हुआ=घमंड नहीं टूटा = pride has not been humbled
पराजित करना = हराना = to defeat
निर्ममता = निर्दयता = cruelty
स्वीकार = मंजूर = accept
पराक्रम = बहादुरी = bravery, courageous act
आहुति = बलिदान = sacrifice.
कालाग्नि-मृत्यु की ज्वाला = fire of death and destruction
कवच=आत्मरक्षा के लिए पहना जाने वाला वस्त्र = armour
क्षीण=कमज़ोर = weak
घृत देकर उभाड़ा है = भड़काया है = fuelled
पुण्यलोक = स्वर्गलोक =  heaven;
धिक्कार है = शर्म की बात है = Fie upon you
पामर = दुष्ट, मूर्ख = a wicked man, a stupid
आत्मप्रवंचना = अपने आप को धोखा देना =  self deception;
दम्भ-झूठा दिखावा =  false pride
स्मरण हुआ = याद आया = remembered;
उपदेश = नसीहत = instruction, advice
विरक्ति-विमुखता =  detachment, lose interest
रक्तरंजित- खून से रंगा हुआ = smeared with blood
कूटनीति-धोखे की चाल = diplomacy, crooked policy
अप्रस्तुत- जो तैयार न हो=  unprepared
ग्रहण करना-अपनाना =  to accept;
कामना=इच्छा = desire
पाखण्डी = झूठा दिखावा करने वाला = hypocrite;
हिंसा = मारने की प्रवृत्ति = violence
तृप्त = संतुष्ट = contented
प्रयास = कोशिश = effort
सम्मुख-सामने= in front
करुणा = दया = mercy
बधिक = जल्लाद = executioner
दुराचारी = बुरे आचरण वाला = evil-doer
तितर-बितर हो जाना-बिखर जाना
शस्त्रास्त्र = हथियार = weapons
उत्साह=जोश = excitement
चेष्टा=प्रयास = effort
मरुस्थल = रैगिस्तान = desert
महत्त्वाकांक्षा = महानता की इच्छा = ambition
पौरुष-वीरता= valour.
विवश-मजबूर
अत्यधिक = intense;
कर्णधार = नाव का संचालक, नेता = heimsman, the person in charge,leader
शिविर=अस्थायी रूप से रहने का स्थान  छावनी = camp
अश्वथामा=गुरु द्रोणाचार्य के पुत्र = son of Dronacharya
व्यथा=पीड़ा = pain
मिथ्याभिमानी- झूठा अभिमान करने वाला = pride, conceited;
कृत्यों-कार्यों = deeds
साक्षी=गवाह = witness
शोणित की गंगा में नहाकर = रक्त में स्नान करके = after having a blood bath
संहार करना=मारना = to kill
आत्मप्रशंसा = अपनी तारीफ = self-praise
उपाधि=पदवी =  title
ताण्डव नृत्य= भीषण संहार =  Shiva’s dance to destroy the world
सर्वसम्मत= जिसे सभी की सम्मति प्राप्त है = unanimous
तर्क = दलील = argument
प्रबन्ध= व्यवस्था = management
पितामह = दादा = grandfather, granduncle
तथ्य-सच्चाई =  reality,
सशक्त-बलवान = powerful
गतिविधि=क्रियाकलाप= activity.
ध्वंस = विनाश = destruction
शोणित तर्पण =रक्तपात =bloodshed
प्रलाप=पागलों की सी बड़बड़ = incoherent speech;
असंभाव्य=जिसकी सम्भावना न हो = improbable
द्रुपद = द्रौपदी के पिता = Draupadi ‘s father
प्रमाण=सबूत=- proof
दिग्विजय= विश्वविजय = conquest of the four directions;
निमन्त्रण = बुलावा = invitation
अंतर्यामी=मन की बात जानने वाला मन का नियन्त्रक, ईश्वर
वीरोचित = बहादुर व्यक्ति के लिए जो ठीक हो =  worthy of the brave
नरसंहार-बहुत लोगों का हनन = massacre of people
निस्सहाय-जिसकी सहायता करने वाला कोई न हो = hapless, helpless
भ्रांति = भ्रम =  delusion
मरणोन्मुख-मृत्यु के समीप = close to death
निष्फल=बेकार = bearing no result, without any outcome;
अभिषेक = राजतिलक= coronation
ग्लानि = खेद = depression, regret
प्रश्नोत्तर अभ्यास –

प्रश्न 1.
“ कह नहीं सकता संजय, किसके पापों का यह परिणाम है, किसकी भूल थी जिसका भीषण विषफल हमें मिला। ओह ! क्या पत्र स्नेह अपराध है, पाप है ? क्या मैंने कभी भी….. कभी भी……’’

  1. कौन अपने हृदय के दुःख को इस प्रकार प्रकट कर रहा है तथा क्यो ?
  2. ‘पुत्र स्नेह’ से आप क्या समझते हैं? ‘ भीषण विषफल’ किसे और क्यों मिला ? भीषण विषफल का क्या परिणाम हुआ ?
  3. ‘पाप’ शब्द से आप क्या समझते हैं ?
  4. उपर्युक्त अवतरण में यह जिसके विचार हैं, उसके विषय में लिखिए।

उत्तर –

1.इस अवतरण में धृतराष्ट्र संजय से अपना दु:ख प्रकट कर रहे हैं। वह इसलिए कि महाभारत के युद्ध ने सब कुछ नष्ट कर दिया। पुत्र स्नेह के कारण किए हुए कार्य, कूटनीतियाँ, षड्यंत्र, पुत्र मोह बंधन, अन्याय आदि दुर्गुण उनको एक न्यायी राजा के रूप में प्रतिष्ठित नहीं होने देंगे अथवा वे एक श्रेष्ठ राजा नहीं कहलाए जाएँगे और भविष्य का इतिहास उन्हें कभी क्षमा नहीं करेगा।

2.’पुत्र स्नेह’ पिता के जीवन में वह स्नेह है जिसके फलस्वरूप पिता अपने सारे सुखों कोसिद्धांतों को, मान-मर्यादाओं को एक ओर रखकर अथवा उनका ध्यान न रखता हुआ अपने पुत्र की इच्छा पूरी करना अपना कर्त्तव्य समझता है। कभी-कभी वह पुत्र स्नेह के कारण अंधा अथवा किंकर्त्व्यविमूढ़ हो जाता है। पुत्र से स्नेह करना अपने रक्त से स्नेह करना है, अपने से स्नेह करना अपनी आत्मा से स्नेह करना है।

3.भीषण विषफल धृतराष्ट को इसलिए मिला क्योंकि पुत्र स्नेह के कारण दुर्योधन की अनुचित बांतों को भी उसने उचित माना तथा पुत्र स्नेह के कारण राजनीति, धर्मनीति तथा लोकनीति का बहिष्कार करते हुए पुत्र की हठ को मानना सर्वोपरि समझा ।’पाप’ शब्द से हम यह समझते हैं कि जो कार्य शास्त्रों द्वारा निषिद्ध माने गए हैं अथवा जिन कार्यों का करना शास्त्रों में मना है उनको करना ही ‘पाप’ है। इसके अतिरिक्त वे कार्य जिनसे दूसरों की हानि होती है, पाप की श्रेणी में आते हैं। वैसे तो ‘पाप’ की परिभाषा बहुत व्यापक है किन्तु साधारणतया पाप को इसी प्रकार स्पष्ट किया जा सकता है।

4.उपर्युक्त अवतरण में धृतराष्ट्र के विचार हैं। वह दुर्योधन के पिता हैं, नेत्रहीन हैं। वह पुत्र स्नेह के कारण, महाभारत के युद्ध के कारण हैं। यदि वह दुर्योधन की बातों को न मानते और अपनी बुद्धि से कार्य करते अथवा बुद्धि का प्रयोग करते तो सम्भवत: युद्ध टल सकता था। पुत्रमोह के कारण उन्होंने अपने दरबार के किसी भी नीतिज्ञ – धर्मयोद्धा की बात नहीं  मानी। अपने पुत्र की इच्छा पूर्ण करना ही मानो उनके जीवन का लक्ष्य था। यद्यपि वह यह जानते थे कि उनका पुत्र अनुचित हठ कर रहा है, अनुचित कार्य कर रहा है किन्तु फिर भी उसका विरोध करना उनके वश की बात नहीं थी। इसी कारण इतिहास में उनको न्यायी राजा के रूप में नहीं माना जाएगा।

प्रश्न 2
” पहले वीरता का दंभ और अंत में करुणा की भीख कायरों का यही नियम है। परंतु दुर्योधन! कान खोलकर सुन लो। हम तुम्हें दया करके छोड़ेगे भी नहीं और तुम्हारी भॉति अधर्म से हत्या कर बधिक भी न कहलाएँगे। हम तुम्हें कवच और अस्त्र देंगे।”

  1. उपर्युक्त कथन किसने, किससे किस प्रसंग में कहा है?
  2. ‘तुम्हारी भाँति’ का प्रयोग कर किसके कौन से गुणों की चर्चा की गई है? समझाकर लिखिए।
  3. ‘अधर्म का तात्पर्य स्पष्ट करते हुए एकाकी के आधार पर बताइए कि दुर्योधन ने किस प्रकार के अधर्म किए थे?
  4. महाभारत की एक साँझ’ पाठको में तर्क-निर्णय का विकास करती है । स्पष्ट कीजिए।

उत्तर –

1.उपर्युक्त कथन युधिष्ठिर ने दुर्योधन से उस समय कहा जब महाभारत का युद्ध लगभग समाप्त हो चुका था। कौरवों की सारी सेना लगभग मारी जा चुकी थी। दुर्योधन भी प्राण-रक्षा के लिए सरोवर में छिप गया था। जब भीम और युधिष्ठिर ने उसे ढूँढ लिया तो कूटनीति का प्रयोग करके वह अपने प्राण बचाने का प्रयास करने लगा।

2.तुम्हारी भाँति’ का प्रयोग कर दुर्योधन के अधार्मिक प्रवृति की चर्चा की गई है। दुर्योधन क्रूर स्वभाव का था। महाभारत के युद्ध में उसने अपने अधार्मिक और अनैतिक स्वभाव का परिचय दिया था। उसने अमानवीयता का परिचय देते हुए सात-सात महारथियों के साथ मिलकर निहत्थे अभिमन्यु की हत्या कीं।

3.अधर्म का तात्पर्य है पाप, अन्याय या धर्म-विरुद्ध कार्य। दुर्योधन दवारा किए गए कार्य अधर्म की भावना से प्रेरित थे। द्रौपदी का चीरहरण करवाना, भीम को विष देना, कर्ण का उनके ही भाइयों के प्रति दुरुपयोग करना आदि उसके द्वारा किए गए अधर्मपूर्ण कार्य थे। राज्य लोभ की भावना से प्रेरित होकर उसने पांडवों को बारह वर्ष का वनवास एवं एक वर्ष का अज्ञातवास दिया था। छल-धोखे से पांडवों की संपत्ति पर अधिकार कर लिया था। ऐसी स्थिति में दुर्योधन को अधार्मिक कहना ही तर्कसंगत है।

4.प्रस्तुत एकाकी में महाभारत की एक घटना के माध्यम से पाठको में तर्क-निर्णय शक्ति का विकास करने की कोशिश की गई है। दुर्योधन युधिष्ठिर से कहता है कि उसने अपने सगे-संबंधियों के रक्त की गंगा में नहाकर राजमुकुट धारण किया है इसलिए जब वह अपनी देख-रेख में इतिहास लिखवाएगा तब सुर्योधन को सदा के लिए दुर्योधन बना देगा और इतिहास अपने पक्ष में लिखवा लेगा। एकाकी में लेखक ने दुर्योधन के दृष्टिकोण से यह समझाने की कोशिश की है कि महाभारत के युद्ध पांडवों के दवारा भीष्म, द्रोण और कर्ण के वध में नियमों को भांग किया गया। भरी सभा में द्रौपदी के अपमान पर दुर्याधन ने तार्किक जवाब दिया कि द्रौपदी ने भी उसका अपमान किया था। उसने यह भी कहा कि द्रौपदी जब सभा में बुलाई गई तो वह जुए में हारी हुई दासी थी। दुर्योधन ने यह भी तर्क दिया कि पांडु को सिर्फ राज्य की देखभाल का कार्य दिया गया था क्योंकि धुतराष्ट्र अंधे थे। ऐसी स्थिति में पांडु का राज्य पर कोई अधिकार नहीं था। अतः महाभारत की एक साँझ एकांकी में तर्क-वितर्क की गुंजाइश है ।

प्रश्न 3.

अरे नीच ! अब भी तेरा गर्व चूर नहीं हुआ ! यदि बल है तो आ न बाहर, और हमको पराजित करके राज्य प्राप्त कर ! वहाँ बैठा क्या वीरता बघारता है ! तू क्या समझता है, हम तेरी थोथी बातों से डर जाएँगे ?

उपर्युक्त वाक्य किसने, किससे कहे हैं ? उपर्युक्त अवतरण का प्रसंग लिखिए। ‘अब भी’ का प्रयोग किस संदर्भ में किया गया है ?
‘किस राज्य’ को प्राप्त करने का प्रसंग है ? अन्त में किसकी पराजय होती है ?
थोथी बातों से क्या तात्पर्य है? कौन थोथी बातें करते हैं और क्या सिद्ध करना चाहते
उपर्युक्त अवतरण के आधार पर पाण्डवों की विचारधारा पर प्रकाश डालिए।

प्रश्न 4.

“अपने स्वार्थ के लिए अपने गुरुजनों, बन्धु-बान्धरवों का निर्ममता से वध करने वाले महात्मा पाण्डवों की रक्त की प्यास अभी तक बुझी नहीं है, यह में जानता हूँ। पर युधिष्ठिर ! सुयोधन कायर नहीं है, वह प्राण रहते तुम्हारी सत्ता स्वीकार नहीं कर सकता।”

उपर्युक्त वाक्य किसने, किससे कहे हैं ? इनसे वक्ता के क्या भाव प्रकट होते हैं ?पाण्डवों को किसलिए और किन-किनका वध करने वाला कहा गया है ?
कौन प्राण रहते पाण्डवों की सत्ता को स्वीकार नहीं कर सकता और क्यों ?
पाण्डवों की रक्त की प्यास’ से क्या तात्पर्य है ? समझाकर लिखिए।
क्या दुर्योधन का पाण्डवों के लिए ‘अपने स्वार्थ के लिए अपने गुरुजनों, बन्धु-बान्धरवों का निर्ममता से बध करने वाले कहना उचित है ? इस विषय में अपने विचार व्यक्त कीजिए।

प्रश्न 5.

भीम : तो फिर आ न बाहर और दिखा अपना पराक्रम! जिस कालाग्नि को तूने वर्षों घृत देकर उभाड़ा है, उसकी लपटों में तेरे साथी तो स्वाहा हो गए। उसके घेरे से तू क्यों बचना चाहता है ? अच्छी तरह समझ ले, यह तेरी आहुति लिए बिना शान्त न होगी।

किसको अपना पराक्रम दिखाने को कहा जा रहा है ? ‘तो फिर’ का प्रयोग किस संदर्भ में किया गया ?समझाकर लिखिए ।
‘घृत देकर उभाड़ा है’ इसको स्पष्ट करें । घृत कब और कहाँ डाला जाता है ? उसका परिणाम क्या होता है ? यहाँ किस संदर्भ में उसका प्रयोग किया गया है ?
‘कालाग्नि’ से क्या अभिप्राय है ? किसकी लपटों में किसके साथी स्वाहा हो गए और कैसे ? समझाकर लिखिए।
आहुति क्या होती है ? ‘तेरी आहुति लिए बिना शान्त न होगी’ से आप क्या समझते हैं ? स्पष्ट करें।

प्रश्न 6.

युधिष्ठिर : अरे पामर ! तेरा धर्म तब कहाँ चला गया था, जब एक निहत्थे बालक को सात- सात महारथियों ने मिलकर मारा था, जब आधा राज्य तो दूर, सूई की नोक के बराबर भी भूमि देना तुझे अनुचित लगा था। अपने अधर्म से इस पुण्यलोक भारत-भूमि में द्वेष की ज्वाला धधकाकर अब तू धर्म की दुहाई देता है।

‘पामर’ किसके लिए और क्यों कहा गया है ? सात-सात महारथियों ने मिलकर किसको मारा था और क्यों ?
भारतभूमि की विशेषताएँ लिखिए ? उसे किस विशेषण से विभूषित किया गया है और क्यों ?
‘सूई की नोक के बरराबर भी भूमि देना तुझे अनुचित लगा था,’ इसके पीछे क्या भावना छिपी है ?
‘अपने अधर्म से…………………………  दुहाई देता है।’ इस पंक्ति की व्याख्या अपने शब्दों में कीजिए।

प्रश्न 7.

“ ले लो राक्षसो ! यदि तुम्हारी हिंसा इसी से तप्त होती है तो ले लो, मेरे प्राण भी ले लो। जब में जीवन-भर प्रयास करके भी अपनी एक भी घड़ी शांति से न बिता सका, जब मैं अपनी एक भी कामना को फलते न देख सका तो अब इन प्राणों को रखकर भी क्या करूँगा !’’

उपर्युक्त वाक्य किसने, किससे कहे हैं? इस अवतरण का क्या प्रसंग है ? ‘राक्षसो’ कहकर क्यों सम्बोधित किया गया है ? ‘हिंसा इसी से तृप्त होती है’ से क्या अभिप्राय है ?
दुर्योधन की अशान्ति का क्या कारण है ? उसकी एक भी कामना पूरी क्यों नहीं हुई ? समझाकर. लिखिए।
‘तो अब इन प्राणों को रखकर भी क्या करूँगा !’ ऐसा क्यों कहा है ? दुर्योधन की इस असहाय स्थिति का क्या कारण है ? स्पष्ट कीजिए।
दुर्योधन सत्पथ पर था या कुपथ पर ? इस विषय में अपने विचार व्यक्ति कीजिए।

प्रश्न 8.

“ पहले वीरता का दंभ और अंत में करुणा की भीख ! कायरों का यही नियम है।हम तुम्हें दया करके छोड़ेंगे भी नहीं, और तुम्हारी भाँति अधर्म से हत्या कर बधिक भी न कहलाएँगै। हम तुम्हें कवच और अस्त्र देंगे।”

उपर्युक्त वाक्य किसने, किससे, किस प्रसंग में कहे हैं ? ‘हम तुम्हें दया करके छोड़ेंगे भी नहीं’ ऐसा क्यों कहा गया है ?
‘तुम्हारी भाँति’ का प्रयोग कर किसके, कौन-से गुणों की विशेषता की चर्चा है ? इस विषय में जो आप जानते हैं लिखिए।
वीर पुरुष की क्या पहचान है ? इस विषय में अपने विचार स्पष्ट कीजिए।
‘अधर्म’ से क्या अभिप्राय है ? युद्ध में धर्म के कुछ नियमों का वर्णन कीजिए ।

प्रश्न 9.

“जब सुयोधन आहत होकर भूमि पर गिर पड़े तो पाण्डव जयध्वनि करते और हर्ष मनाते अपने शिविर को लौट गए। संध्या होने पर पहले अश्वत्थामा आए और कुरुराज की यह दशा देखकर बदला लेने का प्रण करके चले गए।”

उपर्युक्त वाक्य किसने, किससे कहे हैं? उनका संक्षिप्त परिचय दीजिए । ‘ सुयोधन ‘ कहकर किसे सम्बोधित किया गया है ?
जयध्वनि से आप क्या समझते हैं ? लिखिए । जयध्वनि कब, कौन, किसकी करता है ?
पाण्डव हर्ष मनाते हुए अपने शिविर में क्यों लौटे ? उन्हें किस बात की खुशी थी ? ‘
अश्वत्थामा कौन हैं ? इनके विषय में लिखिए ।

प्रश्न 10.

अर्थ का अनर्थ न करो, मैं तो तुम्हें शान्ति देने आया था। मैंने सोचा, हो सकता है।  तुम्हें पश्चात्ताप हो रहा हो ! यदि ऐसा हो, तो में तुम्हारी व्यथा हल्की कर सकूँ, इसी  उद्देश्य से मैं आया था।

उपर्युक्त वाक्य किसने, किससे कहे हैं ? ये किस प्रसंग में कहे गए हैं ? अर्थ का अनर्थ न करो’ से क्या अभिप्राय है ?
‘हो सकता है तुम्हें पश्चात्ताप हो रहा हो’ में किस बात के पश्चात्ताप की ओर संकेत
उपर्युक्त कथन की दुर्योधन पर क्या प्रतिक्रिया हुई ? क्या वह अपने को दोषी मानता है ? समझाकर लिखिए।
‘व्यथा’ किस प्रकार हल्की की जा सकती है ? क्या आपने कभी किसी की व्यथा हल्की की है ? ऐसी किसी घटना का वर्णन कीजिए।

प्रश्न 11.

“युधिष्ठिर ने सदा न्याय ही किया है, सुयोधन ! न्याय के लिए वह बड़े-बड़े दु:ख उठाने से भी नहीं चूका है, सगे-सम्बन्धियों के तड़प-तड़प कर प्राण त्यागने का यह भीषण दृश्य ! अबलाओं, अना्थों का यह करुण चीत्कार किसी भी हृदय को दहलाने के लिए पर्याप्त था।”

उपर्युक्त वाक्य किसने, किससे, किस संदर्भ में कहे हैं ?
युधिष्ठिर को हृदय को दहलाने वाले किन-किन भीषण दश्यो का सामना करना फड़ा
युधिष्ठिर को न्यायवान एवं धर्मराज क्यों कहा गया है ? उदाहरण सहित लिखिए ।
न्याय करने के लिए कठिन से कठिन परिस्थितियों का सामना क्यों करना पड़ता है ? ‘अन्त में न्याय की ही विजय होती है।’ इस बात से आप कहाँ तक सहमत हैं ? अपने विचार व्यक्त कीजिए।

प्रश्न 12.

“ मैं तुम्हारी यह आत्मप्रशंसा नहीं सुन सकता, इसे तुम अपने भक्तों के लिए ही रहने दो तुम विजय की डींग मार सकते हो, पर न्याय-धर्म की दुहाई तुम मत दो। स्वार्थ को न्याय का रूप देकर धर्मराज की उपाधि धारण करने से तुम्हें संतोष मिलता है तो मिले, मेरे लिए वह आत्मप्रवचना है, में उससे घृणा करता हूँ।”

उपर्युक्त वाक्य किसने, किससे, किस संदर्भ में कहे हैं ?
‘तुम विजय की डींग मार सकते हो, पर न्याय-धर्म की नहीं’। दुर्योधन का युधिष्ठिर के लिए ऐसा कहना कहाँ तक ठीक है ? अपने विचार व्यक्त कीजिए ।
‘आत्मप्रवचंना’ का क्या अर्थ है ? इस शब्द का प्रयोग किसने, किसके लिए और क्यों किया है ? क्या दुर्योधन की धर्म की विवेचना से आप सहमत हैं ?
मानव-जीवन के लिए महाभारत का क्या संदेश है ?
प्रश्न 13.

दुर्योधन : और नहीं तो क्या ? जिस राज्य पर तुम्हारा रक्ती भर भी अधिकार नहीं था, उसी को पाने के लिए तुमने युद्ध ठाना, यह स्वार्थ का ताण्डव नृत्य नहीं तो और क्या है ? भला किस न्याय से तुम राज्याधिकार की माँग करते थे ?

जिस राज्य पर तुम्हारा रत्ती भर भी अधिकार नहीं’ क्या दुर्योधन द्वारा युधिष्ठिर से कही गई ये पक्तियाँ उचित हैं ? अपने विचार लिखिए।
‘स्वार्थ का ताण्डव नृत्य’ से क्या अभिप्राय है ? स्पष्ट कीजिए। ताण्डव नृत्य कौन करता है तथा उसका प्रभाव क्या होता है ? यहाँ इस शब्द का प्रयोग क्यों किया गया है :
किन परिस्थितियों में महाभारत का युद्ध हुआ था ? संक्षिप्त विवरण दीजिए।
युधिष्ठिर और दुर्योधन के मध्य हुए वार्तालाप से क्या बात उभरकर सामने आती है ? आपके मतानुसार युधिष्ठिर और दुर्योधन के चरित्रों में क्या भेद है ? स्पष्ट कीजिए।

प्रश्न 14.

“ सब तुम्हारे गुणों से प्रभावित थे, सब तुम्हारी बीरता से डरते थे। कायरों की भाँति रक्तपात से बचने के प्रयत्न में वे न्याय और सत्य का बलिदान कर बेठे। वे यह नहीं समझ पाए। कि भय जिसका आधार हो, वह शान्ति स्थायी नहीं हो सकती।”

उपयुक्त वाक्य किसने, किससे और किस संदर्भ में कहे हैं ? कौन सब, किसके गुणों सेप्रभावित थे और क्यों ?
पंक्ति में ‘वे’ शब्द का प्रयोग किनके लिए किया गया है ? दुर्योधन के इस कथन से आप कहाँ तक सहमत हैं ?
‘भय जिसका आधार हो वह शान्ति स्थायी नहीं हो सकती। इस कथन की व्याख्या कीजिए।
न्याय और सत्य’ का जीवन में क्या महत्त्व है ? समझाकर लिखिए।

प्रश्न 15.

दुर्योधन : तभी तो कहता हूँ युधिष्ठिर ! कि स्वार्थ ने तुम्हें अंधा बना दिया, अन्यथा इतनी छोटी-सी बात क्या तुम्हें दिखाई न पड़ जाती कि जितने धार्मिक और न्यायी व्यक्ति थे, सबने इस युद्ध में मेरा साथ दिया है।

उपर्युक्त अवतरण का प्रसंग क्या है ? युधिष्ठिर को अंधा क्यों कहा जा रहा है ? उसे क्या दिखाई नहीं दिया?
क्या आपको दुर्योधन का यह वक्तव्य युधिष्ठिर के प्रति सत्य प्रतीत होता है ?
सामाजिक अवमानना होते हुए भी दुर्याधन अपने आप को श्रेष्ठ क्यों मनवाना चाहता है ?
‘दुर्योधन की नीतियों से असहमत होते हुए भी अनेक योद्धाओं ने दुर्योधन के पक्ष में युद्ध किया था क्योंकि वे हस्तिनापुर के प्रति निष्ठावान थे।’ इस कथन से आप कहाँ तक सहमत हैं ?

प्रश्न 16.

“ भविष्य को भी तुम चाहो तो बहका सकते हो युधिष्ठिर ! पर सुयोधन को नहीं बहका सकते, क्योंकि उसने अपने बचपन से लेकर अब तक की एक-एक घड़ी तुम्हारी ईर्ष्या के रथ की गड़गड़ाहट सुनते विताई है तुम्हारी तैयारियों ने उसे एक रात भी चैन से नहीं सोने दिया।”

‘भविष्य को भी तुभ चाहो तो बहका सकते हो’ से क्या अभिप्राय है ? स्पष्ट कीजिए।
‘ईर्ष्या के रथ’ से क्या तात्पर्य है ? ईष्ष्या किसे होती है ? यहाँ किस व्यवहार का उल्लेख किया जा रहा है ?
‘तुम्हारी तैयारियों ने उसे एक रात भी चैन से नहीं सोने दिया।’ यह वाक्य दुर्योधन की किस मन:स्थिति को प्रकट करता है ?
उपर्युक्त कथन की युधिष्ठिर पर क्या प्रतिक्रिया होती है ?

प्रश्न 17.

युधिष्ठिर : सुर्योधन ! मुझे लगता है कि तुम सुध-बुध खो बैठे हो, तुम प्रलाप कर रहे हो । भला ज्ञान में भी कोई ऐसी असंभाव्य बातें कहता है ! जो पाण्डव तुमसे तिरस्कृत होकर घर-घर भीख माँगते फिरे, वन-जंगलों की धूल छानते फिरे उनके सम्बन्ध में भला कौन ज्ञानी व्यक्ति तुम्हारे इस कथन का विश्वास करेगा !

‘मुझे लगता है कि तुम सुध-बुध खो बैठे हो’ ऐसा युधिष्ठिर ने सुयोधन से क्यों कहा है ? ‘असंभाव्य’ से क्या अभिप्राय है ? स्पष्ट कीजिए। यहाँ कौन सी बातें असंभाव्य हैं ?
पाण्डवों ने कौरवों से तिरस्कृत होकर क्या-क्या किया ?
क्या कोई ज्ञानी व्यक्ति दुर्योधन के युधिष्ठिर के प्रति वक्तव्यों पर विश्वास करेगा ?
इस एकांकी के लेखक कौन हैं ? इस एकांकी का क्या उद्देश्य है ? इसे पढ़कर आपके मन में क्या विचार उत्पन्न होते हैं ?