बड़े घर की बेटी

लेखक परिचय  – 

प्रेमचंद (31 जुलाई 1880 – 8 अक्टूबर 1936) हिन्दी और उर्दू के सर्वाधिक लोकप्रिय उपन्यासकार, कहानीकार एवं विचारक थे। भारत के उत्तरप्रदेश राज्य के लमही ग्राम में जन्मे प्रेमचंद का मूल नाम धनपत राय था। आरंभ में वे उर्दू की पत्रिका ‘जमाना’ में नवाब राय के नाम से लिखते थे। पहले कहानी संग्रह ‘सोजे वतन’ के अंगरेज सरकार द्वारा जब्त किए जाने तथा लिखने पर प्रतिबंध लगाने के बाद वे प्रेमचंद के नए नाम से लिखने लगे। सेवासदन उनका हिंदी में प्रकाशित होने वाला पहला उपन्यास था। इसकी बेहद लोकप्रियता ने प्रेमचंद को हिंदी का कथाकार बना दिया। हालाँकि प्रायः उनकी सभी रचनाएं हिंदी और उर्दू दोनों में प्रकाशित होती रहीं। उनका अंतिम पूर्ण उपन्यास गोदान किसान जीवन पर लिखी अद्वितीय रचना है। प्रेमचंद ने लगभग तीन सौ कहानियां भी लिखीं जिनमें उनके रचना काल का सामाजिक सांस्कृतिक तथा राजनीतिक इतिहास सुरक्षित हो गया है। उन्होंने ‘जागरण’ नामक समाचार पत्र तथा ‘हंस’ नामक मासिक साहित्यिक पत्रिका का संपादन किया था। उन्होंने सरस्वति प्रेस भी चलाया था।

प्रेमचंद के साहित्यिक जीवन का आरंभ १९०१ से हो चुका था  पर उनकी पहली हिन्दी कहानी सरस्वती पत्रिका के दिसम्बर अंक में १९१५ में सौत नाम से प्रकाशित हुई और १९३६ में अंतिम कहानी कफन नाम से प्रकाशित हुई। प्रेमचंद के लेख ‘पहली रचना’ के अनुसार उनकी पहली रचना अपने मामा पर लिखा व्यं ग्यव थी, जो अब अनुपलब्ध  है। उनका पहला उपलब्धख लेखन उनका उर्दू उपन्यास ‘असरारे मआबिद’है। प्रेमचंद का दूसरा उपन्यास ‘हमखुर्मा व हमसवाब’ जिसका हिंदी रूपांतरण ‘प्रेमा’ नाम से १९०७ में प्रकाशित हुआ। इसके बाद प्रेमचंद का पहला कहानी संग्रह सोज़े-वतन नाम से आया जो १९०८ में प्रकाशित हुआ। देशभक्ति की भावना से ओतप्रोत होने के कारण इस पर अंग्रेज़ी सरकार ने रोक लगा दी और इसके लेखक को भविष्य् में इस तरह का लेखन न करने की चेतावनी दी। इसके कारण उन्हें नाम बदलकर लिखना पड़ा। ‘प्रेमचंद’ नाम से उनकी पहली कहानी बड़े घर की बेटी ज़माना पत्रिका के दिसम्बर १९१० के अंक में प्रकाशित हुई। मरणोपरांत उनकी कहानियाँ मानसरोवर नाम से ८ खंडों में प्रकाशित हुईं। १९२१ में उन्होंने महात्मा गांधी के आह्वान पर अपनी नौकरी छोड़ दी। कुछ महीने मर्यादा पत्रिका का संपादन भार संभाला, छह साल तक माधुरी नामक पत्रिका का संपादन किया, १९३० में बनारस से अपना मासिक पत्र हंस शुरू किया और १९३२ के आरंभ में जागरण नामक एक साप्ताहिक और निकाला। उन्होंने लखनऊ में १९३६ में अखिल भारतीय प्रगतिशील लेखक संघ के सम्मेलन की अध्यक्षता की। उन्होंने मोहन दयाराम भवनानी की अजंता सिनेटोन कंपनी  में कहानी-लेखक की नौकरी भी की। १९३४ में प्रदर्शित मजदूर नामक फिल्म की कथा लिखी और कॉन्ट्रेक्ट की साल भर की अवधि पूरी किये बिना ही दो महीने का वेतन छोड़कर बनारस भाग आये। उन्होंखने मूल रूप से हिंदी में १९१५ से कहानियां लिखना और १९१८ (सेवासदन) से उपन्या्स लिखना शुरू किया।

रचनाएं – 

उपन्यास – प्रेमचंद का पहला उर्दू उपन्यास (अपूर्ण) ‘असरारे मआबिद उर्फ़ ‘देवस्थान रहस्य’ उर्दू साप्ताहिक ‘’आवाज-ए-खल्क़’’ में ८ अक्टूबर, १९०३ से १ फरवरी, १९०५ तक धारावाहिक रूप में प्रकाशित हुआ। उनका दूसरा उपन्यापस ‘हमखुर्मा व हमसवाब’ जिसका हिंदी रूपांतरण ‘प्रेमा’ नाम से १९०७ में प्रकाशित हुआ। चूंकि प्रेमचंद मूल रूप से उर्दू के लेखक थे और उर्दू से हिंदी में आए थे, इसलिए उनके सभी आरंभिक उपन्यानस मूल रूप से उर्दू में लिखे गए और बाद में उनका हिन्दी  तर्जुमा किया गया।

  • असरारे मआबिद उर्फ़ देवस्थान रहस्य’ उर्दू साप्ताहिक ‘’आवाज-ए-खल्क़’’ में ८ अक्टूबर, १९०३ से १ फरवरी, १९०५ तक प्रकाशित।
  • सेवासदन (१९१८)- यह मूल रूप से उन्हों ने ‘बाजारे-हुस्न’’ नाम से पहले उर्दू में लिखा गया लेकिन इसका हिंदी रूप ‘सेवासदन’ पहले प्रकाशित हुआ। यह एक नारी के वेश्या बनने की कहानी है।
  • प्रेमाश्रम (१९२२)- यह किसान जीवन पर उनका पहला उपन्यास है। इसका मसौदा भी पहले उर्दू में ‘गोशाए-आफियत’ नाम से तैयार हुआ था लेकिन इसे पहले हिंदी में प्रकाशित कराया। यह अवध के किसान आंदोलनों के दौर में लिखा गया।
  • रंगभूमि (१९२५)- इसमें प्रेमचंद एक अंधे भिखारी सूरदास को कथा का नायक बनाकर हिंदी कथा साहित्य में क्रांतिकारी बदलाव का सूत्रपात करते हैं।
  • निर्मला (१९२५)
  • कायाकल्प (१९२७)
  • गबन (१९२८)
  • कर्मभूमि (१९३२)
  • गोदान (१९३६)
  • मंगलसूत्र (अपूर्ण)- यह प्रेमचंद का अधूरा उपन्यास है।

कहानी –  प्रेमचंद ने कुल ३०१ कहानियाँ लिखी हैं जिनमें ३ अभी अप्राप्य हैं।इनकी अधिकतर कहानियोँ में निम्न व मध्यम वर्ग का चित्रण है।  प्रेमचंद का पहला कहानी संग्रह सोज़े वतन नाम से जून १९०८ में प्रकाशित हुआ।

प्रेमचंद की प्रमुख कहानियाँ-

  • ‘पंच परमेश्वर’,
  • ‘गुल्लीम डंडा’,
  • ‘दो बैलों की कथा’,
  • ‘ईदगाह’,
  • ‘बड़े भाई साहब’,
  • ‘पूस की रात’,
  • ‘ठाकुर का कुआँ’,
  • ‘सद्गति’,
  • ‘बूढ़ी काकी’,
  • ‘तावान’,
  • ‘विध्वंस’,
  • ‘दूध का दाम’,
  • ‘मंत्र’
  • ‘कफन’
  • “पागल हाथी”

कहानी संग्रह-

  • ‘सप्त- सरोज’,
  • ‘नवनिधि’,
  • ‘प्रेमपूर्णिमा’,
  • ‘प्रेम-पचीसी’,
  • ‘प्रेम-प्रतिमा’,
  • ‘प्रेम-द्वादशी’,
  • ‘समरयात्रा’,
  • ‘मानसरोवर’ : भाग एक व दो और ‘कफन’।(उनकी मृत्यु के बाद उनकी कहानियाँ ‘मानसरोवर’ शीर्षक से ८ भागों में प्रकाशित हुई।)

नाटक – नाटक शिल्प और संवेदना के स्तमर पर अच्छेन हैं लेकिन उनकी कहानियों और उपन्यासों ने इतनी ऊँचाई प्राप्ते कर ली थी कि नाटक के क्षेत्र में प्रेमचंद को कोई खास सफलता नहीं मिली। ये नाटक वस्तुकतः संवादात्मक उपन्यास ही बन गए हैं।

  • संग्राम (१९२३),
  • कर्बला (१९२४)
  • प्रेम की वेदी (१९३३)

निबंध – अमृतराय द्वारा संपादित ‘प्रेमचंद : विविध प्रसंग’ (तीन भाग) वास्तकव में प्रेमचंद के लेखों का ही संकलन है। प्रेमचंद के निबंधों प्रकाशन संस्थामन से ‘कुछ विचार’ शीर्षक से भी छपे हैं। उनके प्रसिद्ध लेख हैं-

  • साहित्य का उद्देश्य,
  • पुराना जमाना नया जमाना,
  • स्वाराज के फायदे,
  • कहानी कला (1,2,3),
  • कौमी भाषा के विषय में कुछ विचार,
  • हिंदी-उर्दू की एकता,
  • महाजनी सभ्यता,
  • उपन्यास,
  • जीवन में साहित्य‍ का स्थान।

अनुवाद – प्रेमचंद एक सफल अनुवादक भी थे। उन्होंसने दूसरी भाषाओं के जिन लेखकों को पढ़ा और जिनसे प्रभावित हुए, उनकी कृतियों का अनुवाद भी किया। ‘टॉलस्टॉईय की कहानियाँ’ (1923), गाल्सिवर्दी के तीन नाटकों का हड़ताल (1930), चाँदी की डिबिया (1931) और न्या‍य (1931) नाम से अनुवाद किया। उनके द्वारा रतननाथ सरशार के उर्दू उपन्या स फसान-ए-आजाद का हिंदी अनुवाद आजाद कथा बहुत मशहूर हुआ।

कथानक –

‘बड़े घर की बेटी’ एक संयुक्त परिवार की कहानी है । ठाकुर बेनीमाधव सिंह गौरीपुर गाँव के ज़मींदार थे। उनके पितामह किसी समय बड़े धन- धान्य से सम्पन्न थे । पर बेनीमाधव सिंह अपनी आधी से अधिक सम्पत्ति वकीलों को भेंट कर चुके थे। उनकी वर्त्तमान आय एक हज़ार रुपए वार्षिक से अधिक न थी। ठाकुर साहब के दो बेटे थे। बड़े का नाम श्रीकंठ सिंह था । वह बहुत परिश्रमी था। उसने बी०ए० की डिग्री प्राप्त की थी, पर पढ़ाई ने शरीर को निर्बल और चेहरे को कांतिहीन बना दिया था। छोटा लड़का लालबिहारी सिंह दोहरे बदन का सजीला जवान था। भैंस का दो सैर ताज़ा दूध वह सवेरे उठकर पी जाता था। पढ़े-लिखे होने के पश्चात् भी श्रीकंठ पाश्चात्य सामाजिक प्रथाओं के विशेष प्रेमी न थे। वह संयुक्त परिवार के प्रेमी थे बड़े उत्साह से रामलीला में सम्मिलित होते और स्वयं किसी न किसी पात्र का अभिनय करते थे। स्त्रियों को कुटुम्ब में मिल-जुलकर रहने की जो अरुचि होती है, उसे वह देश और जाति दोनों के लिए हानिकारक समझते थे । यही कारण था कि गाँव की ललनाएँ इनकी निंदक धीं। यहाँ तक कि स्वयं इनकी पत्नी का इस विषय में उनसे विरोध था। श्रीकंठ की पत्नी आनंदी भूपसिंह नामक एक रियासत के ताल्लुकेदार की रूपवती, गुणवती व प्रिय कन्या थी। श्रीकंठ भूपसिंह के पास चंदा माँगने गए थे उन्हें देखकर, प्रभावित होकर, भूपसिंह ने अपनी वेटी आनन्दी की शादी उनसे कर दी थी।जिस टीम-टाम की आनंदी को बचपन से ही आदत थी, वह यहाँ नाम-मात्र को भी न थी। यह एक सीधा-सादा देहाती गृहस्थ का मकान था, किन्तु आनन्दी ने थोड़े दिनों में ही अपने को नई परिस्थिति के अनुकूल बना लिया था।एक दिन लालबिहारी सिंह दो चिड़ियाँ लाए और अपनी भाभी आनंदी से पकाने के लिए कहा। आनंदी ने नया व्यंजन बनाने में पाव भर घी डाल दिया। दाल के लिए बिल्कुल भी घी न बचा। लालबिहारी सिंह खाने बैठा तो दाल में घी न देखकर भाभी से घी की माँग की। परन्तु भाभी ने कहा कि मैंने सारा घी मांस पकाने में ही डाल दिया है। लालबिहारी को बहुत गुस्सा आया। तुनककर बोला- ‘मैके में तो जैसे घी की नदी बहती हों।’ परन्तु आनंदी मैके का व्यंग्य सहन न कर सकी। उसने कहा-‘वहाँ तो इतना घी नित्य नाई-कहार खा जाते हैं।बस इसी बात पर भाभी देवर में कहासुनी हो गई। लालबिहारी ने खड़ाऊँ उठाकर आनंदी की ओर ज़ोर से फेंकी। आनंदी ने हाथ से खड़ाऊँ रोकी। सिर बच गया, पर उँगली में काफ़ी चोट आई।स्त्री का बल, साहस, मान और मर्यादा पति तक है। अत: आनंदी ख़ून का घूँट पीकर रह गई।श्रीकंठ शनिवार को घर आया करते थे। बृहस्पतिवार को यह घटना घटी थी। दो दिन तक आनंदी कोपभवन में रही थी। न कुछ खाया न कुछ पिया, बस श्रीकंठ की बाट देखती रही।अंत में शनिवार को श्रीकंठ घर आए। बाहर बैठकर इधर-उधर की बातें होती रहीं। श्रीकंठ के घर आने पर लालबिहारी ने  भाभी की शिकायत की। पिता ने भी उसका साथ दिया। परंतु बाद में पूरी बात जानने पर जब श्रीकंठ ने कहा कि इस घर में या तो वह रहेगा, या लालबिहारी। तो लालबिहारी रोते हुए भाभी से माफ़ी माँगता है। भाभी ठहरी बड़े घर की बेटी। उसके संस्कार ऐसे थे कि न केवल उसने लालबिहारी को माफ़ किया अपितु उसे माफ़ करने के लिए पति को भी प्रेरित किया। टूटता घर जुड़ गया। पिता भी आनन्द से पुलकित हो गए और कह उठे कि बड़े घर की बेटियाँ ऐसी ही होती हैं जो बिगडता हुआ काम बना दें। इस प्रकार जो झगड़ा उसके मायके के धन-उस घर- के संस्कारों के कारण हुआ। उन संस्कारों में दूसरों की भावनाओं की कद्र करना, दोषों को क्षमा करना तथा मिलजुल कर रहने की भावना थी। इस तरह बड़े घर के संस्कारों की पहचान व्यक्ति के गुणों से होती है न कि उसके धन से।

शीर्षक की सार्थकता – प्रेमचन्द की कहानी का शीर्षक ‘बड़े घर की बेटी’ पूर्णतः सार्थक है! कहानी में आनंदी उच्च कुल की लड़की थी। उसके पिता भूपसिंह छोटी-सी रियासत के ताल्लुकेदार थे। आनंदी उनकी चौथी, सबसे सुन्दर एवं गुणवती कन्या थी। ठाकुर साहब का उसे बहुत प्यार मिला था। श्रीकंठ जब उनके पास चन्दा माँगने आए, तो वे उनके स्वभाव पर रीझ गए और धूमधाम से आनन्दी का विवाहउनके साथ कर दिया। आनंदी ने बचपन से जिस टीमटाम को देखा था वह नए घर में न थी। उसने स्वयं को परिस्थितियों के अनुरूप ढाल लिया, जिससे उसके त्याग, सम्मान, क्षमाशीलता, पारिवारिक प्रेम, स्वाभिमान आदि गुणों का परिचय मिलता है। वह गाँव के मकान में ही रहती थी। एक दिन पति की अनुपस्थिति में उसका दाल में घी न डालने के कारण देवर से झगड़ा हो गया। लालबिहारी ने उसके मायके का अपमान ही नहीं किया अपितु खड़ाऊँ भी फेंक कर मारी। आनंदी का सिर तो बच गया पर अँगुली में चोट लग गई। वह अपना अपमान सहन न कर सकी। वास्तव में बड़े घर से तात्पर्य दौलत से नहीं अपितु संस्कारों से होता है। इसीलिए वह स्वयं को परिस्थितियों के अनुरूप ढाल लेती है। उसका सम्मान उसके परिवार से है। देवर द्वारा किए गए अपमान को उसका स्त्रीत्व सह न सका और वह दो दिन तक कमरे में बन्द रही और न कुछ खाया, न पिया। स्त्री का बल और साहस, मान और मर्यादा पति तक है इसलिए आनंदी बिल्कुल चुप रही। श्रीकंठ के घर आने पर लालबिहारी ने भाभी की शिकायत की। पिता ने भी उसका साथ दिया। परंतु बाद में पूरी बात जानने पर जब श्रीकंठ ने कहा कि इस घर में या तो वह रहेगा, या लालबिहारी तो लालबिहारी रोते हुए भाभी से माफ़ी माँगता है। भाभी ठहरी बड़े घर की बेटी । उसके संस्कार ऐसे थे कि न केवल उसने लालबिहारी को माफ़ किया अपितु उसे माफ़ करने के लिए पति को भी प्रेरित किया। टूटता घर जुड़ गया। पिता भी आनन्द से पुलकित हो गए और कह उठे कि बड़े घर की बेटियाँ ऐसी ही होती हैं जो बिगडता हुआ काम बना दें। इस प्रकार जो झगड़ा उसके मायके के धन-उस घर- के संस्कारों के कारण हुआ। उन संस्कारों में दूसरों की भावनाओं की कद्र करना, दोषों को क्षमा करना तथा मिलजुल कर रहने की भावना थी। इस तरह बड़े घर के संस्कारों की पहचान व्यक्ति के गुणों से होती है न कि उसके धन से। इस प्रकार स्पष्ट ही है कि ‘बड़े घर की बेटी’ शीर्षक पूर्णत: उचित है।

उद्देश्य – कहानी का मुख्य उद्देश्य आदर्शोन्मुख यथार्थवाद का प्रस्तुतीकरण रहा है । ‘बड़े घर की बेटी’ की कहानी एक संयुक्त परिवार की कहानी है । बेनीमाधव सिंह गौरीपुर गाँव के ज़मींदार हैं जिन्होंने मुकदमेबाज़ी में अपनी आधी से ज़्यादा सम्पत्ति गँवा दी थी। उनके बड़े पुत्र श्रीकंठ शहर में नौकरी करते हैं लेकिन छोटा बेटा अनपढ़ और गँवार है परंतु अपने भाई से विशेष प्रेम करता है। श्रीकंठ की पत्नी आनंदी एक बड़े घर की बेटी है। दाल में घी को लेकर भाभी देवर में झगड़ा होता है और अन्त देवर द्वारा खड़ाऊँ फेंकने पर होता है। आनंदी अनुभव करती है कि यदि उसके पति वहाँ होते तो उसे इस तरह देवर से अपमानित न होना पड़ता। श्रीकंठ के आने पर पिता पुत्र उससे उसकी पत्नी की शिकायत करते हैं पर जब अँगुली की चोट को देखकर श्रीकंठ सच्चाई जानते हैं तो वे अलग होने की बात करते हैं।पिता पुत्र में जमकर झगड़ा होता है। यहाँ अपनी खिचड़ी अलग पकाना ही अच्छा है। श्रीकंठ आगबबूला हो गए थे। वह भाई का मुँह भी देखना नहीं चाहते थे। जो कार्य लालबिहारी ने लड़कपन एवं मूर्खता में किया था उसकी इतनी बड़ी सज़ा भुगतनी पड़ेगी, यह उसने सोचा भी नहीं था। वह रो रहा था और भाभी से अपने अपराध के लिए क्षमा माँग रहा था। वह घर छोड़ कर जा रहा था। यदि सुबह का भूला साँझ को घर आ जाए तो उसे भूला नहीं कहते। यहाँ लेखक का उद्देश्य उसे अपनी से परिचित कराना है न कि सज़ा देना। लालबिहारी सिंह अपने बड़े भाई से प्रेम करता है और उनका सम्मान भी करता है। भाभी ने पति को समझाया और उसे रोकने के लिए कहा। दोनों भाई गले मिले और इस तरह टूटता परिवार फिर जुड़ गया। पिता को भी अहसास हुआ कि वास्तव में बड़े घर की बेटियाँ बिगड़ते कार्य को भी बना देती हैं। इस प्रकार लेखक का उद्देश्य मनोवैज्ञानिक चित्रण के द्वारा एक आदर्श उपस्थित करना है जो यथार्थ की गलियों से होकर जाता है। यह एक चरित्र-प्रधान कहानी है जिसमें बड़े घर की संज्ञा बहू को उसके गुणों के कारण मिलती है, न कि धन के कारण। ऊँचे कुल का महत्त्व दर्शाना भी लेखक का उद्देश्य रहा है।

पात्र-परिचय –

  • बेनीमाधव सिंह – गौरीपुर गाँव के जमींदार व नम्बरदार।
  • श्रीकंठ सिंह – : बेनीमाधव सिंह का बड़ा पुत्र।
  • लालविहारी सिंह – : श्रीकंठ का छोटा भाई।
  • आनंदी – : श्रीकंठ की पत्नी
  • भूपसिंह – : आनन्दी के पिता, एक छोटी सी रियासत के ताल्लुकेदार।

चरित्रचित्रण –  

बेनीमाधव सिंह – बेनीमाधव सिंह गौरीपुर गाँव के ज़मींदार व नम्बरदार थे। वे एक आदर्श पिता व समझदार व्यक्ति थे परन्तु स्त्रियों से अधिक पुरुषों को श्रेष्ठ समझते थे तभी लालबिहारी द्वारा बड़े भाई से भाभी की शिकायत करने पर इन्होंने भी बेटे का ही समर्थन किया था। संयुक्त परिवार के पोषक थे। किसी की प्रशंसा करने में भी चूकते नहीं थे। जिस बहू के दुर्व्यवहार की शिकायत बेटे से की थी, उसी बहू के द्वारा पुन: दोनों भाइयों के मिलाप को देखकर वे उसकी प्रशंसा करने से भी अपने को रोक न सके और खुश होकर वोले-‘बड़े घर की बेटियाँ ऐसी ही होती हैं। बिगड़ता काम बना लेती हैं।’

श्रीकंठ सिंह –  श्रीकंठ बेनीमाधव सिंह का बड़ा पुत्र था। बी०ए० पास था। अधिक परिश्रम करने के कारण शरीर से निर्बल व कांतिहीन था। संयुक्त परिवार को मानता था। पाश्चात्य सामाजिक प्रथाओं को विशेष पसन्द नहीं करता था स्त्रियों को कुटुम्ब में साथ रहने की जो अरुचि होती है, उसे वह देश और जाति दोनी के लिए हानिकारक समझता था इसलिए स्त्रियाँ उसे नापसन्द करती थी| अपनी पत्नी से बहुत प्यार करता था तथा अपने कर्तव्य पालन के लिए प्रत्येक शनिवार को घर आ जाया करता था। समझदार भी था, अत; उसने अपनी पत्नी व भाई की नंक-झाक की पूरी तरह से समझ कर ही पिता से बात की थी। भावुक व सहृदय था अपनी पत्नी के ऑँसू सहन नहीं कर सका था। साथ ही पति धर्म की मर्यादा को भी जानता व समझता था सरल व सीधा युवक था। तर्क शक्ति में पंडित था। संश्षेप् में, श्रीकंठ एक पढ़ा-लिखा, समझदार, संयुक्त परिवार को पसन्द करने वाला, सीधा-सादा, तारकिक बुद्धि वाला युवक होने के साथ-साथ एक मर्यादापालक पति भी था।

लालबिहारी सिंह – सजीला जवान, दूध पीने का शौकीन एवं हृष्ट- पुष्ट युवक था। खाने-पीने का विशेष शौकीन था।उसने क्रोध आने पर मुँह से असंगत बात तो निकाल ही दी थी, साथ ही मारने की भूल भी की थी।अत: पता चलता है कि वह अपने क्रोध पर काबू नहीं रख पाता था। बहस करने में प्रवीण था। परन्तु परिवार से बहुत ज्यादा प्यार करता था। सहृदय व भावुक भी था। अकेले रहने की व परिवार से अलग होने की बात से ही फूट-फूटकर रोने लगता था। क्षमा माँगने से कोई छोटा नहीं होता, इसका उसे ज्ञान था। उसने अपने भैय्या- भाभी से क्षमा भी माँग ली थी। उसके इसी गुण के कारण यह परिवार एक साथ रह सका था। अत: लालबिहारी एक सहृदय, स्वस्थ, क्रोधी, परिवार को प्रेम करने वाला एक भावुक युवक  था।

आनंदी – कहानी की नायिका आनंदी एक सुन्दर व समझदार धनी परिवार की रूपवती व गुणवती कन्या थी। मिलनसार व हर परिस्थिति में मिल-जुल कर रहने वाली, मृदुभाषी व परिश्रमी युवती थी। अपनी ससुराल के सभी सदस्यों से प्रेम व श्रद्धा रखती थी। अपने मायके की मर्यादा को भी भली-भाँति कायम रखना जानती थी। यही कारण था कि लालबिहारी द्वारा मायके का ताना देने पर आनंदी सहन नहीं कर सकी थी। परन्तु अपने सम्मान की भी रक्षा करना जानती थी। वह यह भी भली-भाँति समझती थी कि स्त्री का बल, साहस, मान और मर्यादा पति तक है, अत: वह लालबिहारी द्वारा खड़ाऊँ फेंकने पर घायल अँगुली लिए बिना खाए-पीए तीन दिन तक कोपभवन में ही रही। पति के आने पर ही अपने मन की बात कही। पर परिवार को टूटते देख अपने दुःख को भुला कर पति के छोटे भाई को घर से दूर जाने से रोकने के लिए कहने लगी और अन्त में सफल भी हो गई।

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मेरे विचार……. दीपक की लौ आकार में भले ही छोटी हो, लेकिन उसकी चमक और रोशनी दूर तक जाती ही है। एक अच्छा शिक्षक वही है जिसके पास पूछने आने के लिए छात्र उसी प्रकार तत्पर रहें जिस प्रकार माँ की गोद में जाने के लिए रहते हैं। मेरे विचार में अध्यापक अपनी कक्षा रूपी प्रयोगशाला का स्वयं वैज्ञानिक होता है जो अपने छात्रों को शिक्षित करने के लिए नव नव प्रयोग करता है। आपका दृष्टिकोण व्यापक है आपके प्रयास सार्थक हैं जो अन्य अध्यापकों को भी प्रेरित कर सकते हैं… संयोग से कुछ ऐसी कार्ययोजनाओं में प्रतिभाग करने का मौका मिला जहाँ भाषा शिक्षण के नवीन तरीकों पर समझ बनी। इस दौरान कुछ नए साथियों से भी मिलना हुआ। उनसे भी भाषा की नई शिक्षण विधियों पर लगातार संवाद होता रहा। साहित्य में रुचि होने के कारण हमने अब शिक्षा से सम्‍बन्धित साहित्य पढ़ना शुरू किया। कोई बच्चा बहुत से लोकप्रिय तरीके से सीखता है तो कोई बच्चा अपने विशिष्ट तरीके से किसी विषय को ग्रहण करता है और अपने तरीके से उस पर अपनी समझ का निर्माण करता है। इसी सन्‍दर्भ में बच्चों के मनोविज्ञान को समझने की जरूरत है। मनोविज्ञान को मानसिक प्रक्रियाओं, अनुभवों और व्यवहार के वैज्ञानिक अध्ययन के रूप में देखा जाता है। इसी नजरिये से शिक्षा मनोविज्ञान को भी क्लासरूम के व्यावहारिक परिदृश्य के सन्‍दर्भ में देखने की आवश्यकता है। यहाँ गौर करने वाली बात है, “स्कूल में बच्चों को पढ़ाते समय केवल कुछ बच्चों पर ध्यान देने से हम बच्चों का वास्तविक आकलन नहीं कर पाते कि वे क्या सीख रहे हैं? उनको किसी बात को समझने में कहाँ दिक्कत हो रही है? किस बच्चे को किस तरह की मदद की जरूरत है। किस बच्चे की क्या खूबी है। किस बच्चे की प्रगति सही दिशा में हो रही है। कौन सा बच्चा लगातार बेहतर प्रदर्शन कर रहा है और उसे आगे बढ़ने के लिए स्वतंत्र रूप से पढ़ने और काम करने के ज़्यादा मौके देने की जरूरत है।” एक शिक्षक को बच्चों के आँसू और बच्चों की खुशी दोनों के लिए सोचना चाहिए। बतौर शिक्षक हम बच्चों के पठन कौशल , समझ निर्माण व जीवन के प्रति एक व्यापक दृष्टिकोण का निर्माण कर रहे होते हैं। अपने व्यवहार से बच्चों की जिंदगी में एक छाप छोड़ रहे होते हैं। ऐसे में हमें खुद को वक्‍त के साथ अपडेट करने की जरूरत होती है। इसके लिए निरन्‍तर पढ़ना, लोगों से संवाद करना, शिक्षा के क्षेत्र में होने वाले भावी बदलावों को समझना बेहद जरूरी है। ताकि आप समय के साथ कदमताल करते हुए चल सकें और भावी नागरिकों के निर्माण का काम ज्यादा जिम्मेदारी और सक्रियता के साथ कर सकें। इस बारे में संक्षेप में कह सकते हैं कि बतौर शिक्षक हमें खुद भी लगातार सीखने का प्रयास जारी रखना चाहिए। आज के शिक्षण-अधिगम प्रक्रिया में सूचना और तकनीक का इस्तेमाल बढ़ गया है। पुस्तक जहाँ पहले ज्ञान का प्रमाणिक स्रोत और संसाधन हुआ करता था आज वहाँ तकनीक के कई साधन मौजूद हैं। आज विद्‌यार्थी किताबों की श्याम-श्वेत दुनिया से बाहर निकलकर सूचना और तकनीक की रंग-बिरंगी दुनिया में पहुँच चुका है, जहाँ माउस के एक क्लिक पर उसे दुनिया भर की जानकारी दृश्य रूप में प्राप्त हो जाती है। एक शिक्षक होने के नाते यह ज़िम्मेदारी होनी चाहिए कि हम समय के साथ खुद को ढालें और शिक्षण-अधिगम प्रक्रिया को सुचारू रूप से गतिशील बनाए रखने के लिए आधुनिक तकनीक के साधनों का भरपूर प्रयोग करें। यदि आप अपनी कक्षा में सूचना और तकनीक का इस्तेमाल करते हुए विद्‌यार्थी-केन्द्रित शिक्षण को प्रोत्साहित करते हैं तो आपकी कक्षा में शैक्षणिक वातावरण का विकास होता है और विद्‌यार्थी अपने अध्ययन में रुचि लेते हैं। यह ब्लॉग एक प्रयास है जिसका उददेश्य है कि इतने वर्षों में हिंदी अध्ययन तथा अध्यापन में जो कुछ मैंने सीखा सिखाया । उसे अपने विद्यार्थियों और मित्रों से साझा कर सकूँ यह विद्यार्थियों तथा हमारे बीच एक अखंड श्रृंखला का कार्य करेगा। मै अपनी ग़ैरमौजूदगी में भी अपने ज़रूरतमंद विद्यार्थियों के बहुत पास रहूँगा …… मेरा प्रयास है कि अपने विद्यार्थी समुदाय तथा कक्षा शिक्षण को मैं आधुनिक तकनीक से जोड़ सकूँ जिससे हर एक विद्यार्थी लाभान्वित हो सके …

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