सूखी डाली

उपेन्द्रनाथ ‘अश्क’Untitled

लेखक परिचयः

सामाजिक एकाकीकारों में उपेन्द्रनाथ ‘अश्क’ का नाम प्रमुख रूप से लिया जाता है। इनका जन्म 14 दिसम्बर 1910 को जलन्धर में हुआ था। अश्क जी ने एक ऐसे समाज की कल्पना की है।जहाँ प्रत्येक व्यक्ति को समान अधिकार प्राप्त हों । अपने एकांकियों में अश्क जी ने दहेज, बेमेल विवाह और संयुक्त परिवार प्रणाली आदि पर भी चोटें की हैं। ‘लक्ष्मी का स्वागत’, ‘पापी’, ‘ अधिकार का रक्षक’ और ‘सूखी डाली’, आदि एकांकी अविस्मरणीय हैं। इसके अतिरिक्त ‘वेश्या’ और ‘कामदा’ नामक एकांकी भी सुन्दर हैं। अश्क जी ने जीवन की विषमताओं और विसंगतियों को अपने नाटकों में कुरेदा है। अश्क जी के प्रत्येक एकांकी में प्रमुख पात्र के मन में तीव्र असंतोष या विषाद का चित्रण हुआ है यही हमें ‘सूखी डाली’ में भी देखने को मिलता है। अश्क जी की भाषा नाटकों के लिए उपयुक्त भाषा है। छोटे-छोटे सरल संवादों से कथा विकसित होती है और पात्रों के चरित्र भी स्पष्ट होते चले जाते हैं। लेखक की लेखनी का कौशल है कि पात्रों के मन की बात स्वतः ही बाहर झलक उठती है। अभिनय की दृष्टि से भी अश्क जी के एकांकी उत्कृष्ट कोटि के एकांकियों में गिने जाते हैं क्योंकि उनमें अधिक साज-सज्जा और  नाटकीय दृश्यों का झमेला नहीं होता। अश्क जी ने कुछ प्रहसन भी लिखे हैं। इन प्रहसनों में ‘जोंक’, ‘आपसी समझौता’ और ‘विवाह के दिन’ उल्लेखनीय हैं। अश्क जी के नाटकों में आदर्शवादिता लक्षित नहीं होती। दुखांत एकांकियों की प्रवृत्ति अश्क जी में भी है और इस प्रकार का अंत प्रायः सर्वश्रेष्ठ पात्र के भाग्य पर ही काली छाया बनकर मॅडराता है। इस प्रवृत्ति का कारण शायद अश्क जी का यही विचार है कि संसार का ढाँचा बिगड़ा हुआ है जिसमें सत्य और आदर्श का अनुयायी ही सदैव पीसा जाता है। अश्क जी ने साम्यवादी समाज की स्थापना का स्वप्न देखते हुए अपने नाटकों एवं एकांकियों में पूँजीवादी मनोवृत्तियों की आलोचना की है। इस प्रकार हिन्दी एकांकी के प्रमुख शिल्पियों में अश्क जी का नाम अत्यंत आदर से लिया जाता है। 19 जनवरी 1996 में इलाहाबाद में इनका देहावसान हो गया।

प्रस्तुत एकांकी ‘सूखी डाली’ में अश्क जी ने अपने जीवन काल में समाज के यथार्थ को अनावृत  करने का भरसक प्रयत्न किया। उनके चरित्र आदर्श चरित्र हैं, उनके नाटकों की भाषा सरल व प्रवाहमय है, छोटे-छोटे सरल संवादों द्वारा कथा विकसित होती है।’सूखी डाली’ एकांकी में संयुक्त परिवार प्रणाली का चित्रण किया गया है।

                                                       एकांकी का उद्देश्य

प्रस्तुत एकांकी ‘सूखी डाली’ मे संयुक्त परिवार प्रणाली का चित्रण किया गया है । दादा जी के संगठित परिवार में छोटी बहू बेला के आ जाने से जो हलचल मच जाती है, वह प्रथम तो पूरे परिवार के लिए चर्चा का विषय बन जाती है पर दादा जी के समझाने से सब सदस्यों के व्यवहार में परिवर्तन आ जाता है जिसमें व्यंग्य और कृत्रिमता का पुट है। पहले तो बेला का दम-सा घुटता है पर वह सोचती है कि सब मुझे पराई क्यों समझते हैं और अन्त में परिस्थिति से समझौता कर इन्दु के समक्ष आत्मसमर्पण कर देती है। इस एकांकी द्वारा लेखक ने यह दिखाने का प्रयास किया है कि इस एकांकी द्वारा लेखक ने यह दिखाने का प्रयास किया है कि नई बहू जब अपनी ससुराल में आती है तो उसे सारा वातावरण नया लगता है। वह अपनी ससुराल की मायके से तुलना कर बैठती है। यह तुलना ससुराल वालों को बुरी लगनी स्वाभाविक है। यहीं झगड़े का सूत्रपात होता है जो परिवार में असन्तोष का कारण बनता है। अत: ऐसी स्थिति से बचना चाहिए तथा परिवार में स्वयं को ढालने की कोशिश करनी चाहिए। इस एकांकी द्वारा यह दिखाने का प्रयास किया गया है कि परिवार में एक दूसरे पर आक्षेप, ईर्ष्या, द्वेष व कटूक्तियों का प्रयोग नहीं करना चाहिए। एक दूसरे पर व्यंग्यपूर्ण भाषा के प्रयोग से बचना चाहिए।एकांकी में कौशल से लेखक ने यह भी व्यक्त कर दिया है कि आधुनिक युग में नई पीढ़ी भले ही तानाशाही को ठीक न समझे पर परिवार को एक सूत्र में बाँधे रखने का यही तरीका उपयुक्त होता है, जो चरित्र दादा जी ने निभाया है। एकांकी का अन्त बहुत सुन्दर है। दादा जी चाहते हैं कि जिस प्रकार वटवृक्ष की डालियाँ उसे एक छतनार विशाल वृक्ष का रूप देती हैं उसी प्रकार परिवार का हर सदस्य एक डाली के समान है और वृक्ष की एक भी डाली टूटने से वृक्ष असुन्दर हो जाता है। अत: परिवार के हर सदस्य को मिलजुल कर रहना चाहिए। छोटी बहू को डर है कि वह कहीं परिवार से अलग हो गई तो वृक्ष की टूटी हुई डाल के समान ही सूख न जाए। अत: वह समझौता कर लेती है।लेखक ने परिवार के सदस्यों के मानसिक अन्तर्द्वद्ध को बड़ी सूझबूझ से दर्शाया है। परिवार के सदस्यों में विचारों व स्वभाव में विभिन्नता होते हुए भी एकता की ऐसी डोरी बँधी हुई है कि परिवार सुचारू रूप से चलता रहता है। यही इस एकांकी का उद्देश्य है । लेखक का विचार है कि परिवार की डोर का एक सिरा किसी ऐसे व्यंक्ति के हाथों में होना आवश्यक है जिसका सम्मान पूरा परिवार करता हो, उसकी बात मानता हो, तभी परिवार की कुशलता संभव है। अश्क जी का यह नाटक पश्चिमी तकनीक से प्रभावित है। इसका अन्त दुःखान्त नहीं, सुखान्त है। इसमें प्रभावोत्पादकता है। अश्क जी का यह सामाजिक एकांकी एक सफल रचना है। दादा जी की परिपक्व बुद्धि के परिणामस्वरूप एक घर के कार्य में सहयोग न देने वाली स्त्री भी सहयोग देने लगती है। यहाँ गांधी जी के दर्शन का प्रभाव लेखक पर दिखाई देता है कि कठोरता पर कोमलता’ से विजय प्राप्त की जा सकती है और लेखक अपने उद्देश्य में सफल हुआ है।

                                                                   शीर्षक की सार्थकता

‘सूखी डाली’ एकांकी में एक संयुक्त परिवार प्रणाली का चित्रण है। सूखी डाली’ एकांकी में एक संयुक्त परिवार प्रणाली का चित्रण है। दादा जी,के मुखिया हैं, परिवार को एक बरगद के पेड़ के समान मानते हैं जिसका हर सदस्य पेड़ की डाली के समान पेड़ का एक प्रमुख अंग है। दादा जी के भरे-पूरे परिवार के छोटे पोते परेश की पत्नी बेला के आ जाने से परिवार में हलचल मच जाती है। वह एक सुसंस्कृत व सभ्य परिवार की सुशिक्षित लड़की है दूसरे परिवार में स्वयं को समायोजित नही कर पा रही है। वह अपने मायके के परिवार को अधिक सुसंस्कृत समझती है जिसके कारण उसकी अपनी ननद से कुछ कहा  – सुनी होती रहती है दादा जी को जब इस बात का पता चलता है तो वे परिवार के सभी सदस्यों को बुलाकर समझाते हैं कि घृणा को घृणा से नहीं बल्कि प्रेम से जीतना चाहिए। दादा जी के समझाने पर परिवार के सभी सदस्य छोटी बहू को बहुत आदर देने लगते हैं जिससे उसे लगता है कि वह अपरिचितों में आ गई है। एक दिन अपनी ननद से पूछने पर जब उसे यह पता चलता है कि दादा जी के कहने पर ही सभी ऐसा कर रहे हैं तो वह समर्पण कर देती है तथा सबके साथ मिलजुल कर काम करने के लिए तैयार हो जाती है। वह इन्दु से कहती हैं, “मैं भी तुम्हारे साथ जाऊँगी, मैं भी तुम्हारे साथ कपड़े धोऊँगी।” जब दादा जी छोटी बहू (बेला) को इन्दु के साथ कपड़े धोते देखते हैं तो उसे बुलाकर कहते हैं-“बेटा! तुम्हारा काम कपड़े धोना नहीं है। इन्दु के भाभी को ‘भाभी जी’ न कहकर केवल ‘भाभी’ शब्द का प्रयोग करने पर दादा जी को बुरा लगता है। वह इन्दु से कहते हैं-“इन्दु, तुझे कितनी बार कहा है कि आदर से……….तब बेला भावावेश में रुँधे हुए कंठ से कहती है – “दादा जी, आप पेड़ से किसी डाली का तथा टूटकर अलग होना पसन्द नहीं करते, पर क्या आप यह चाहेंगे कि पेड़ से लगी-लगी वह डाल सूखकर मुरझा जाए  यह कहकर वह सिसकने लगती है।उसका कहने का आशय है कि जिस प्रकार पेड़ की डाल पेड़ से अलग होकर सूख जाती है इसी प्रकार परिवार से अलग होकर वह भी सूखी डाली की तरह मुरझा सकती है। अत: वह सूखी डाली नहीं बनना चाहती। इस प्रकार एकांकी का शीर्षक सूखी डाली एकदम सार्थक है।

                                                                             चरित्र चित्रण

दादा मूलराज – 

दादाजी अपने परिवार की रीढ़ कहे जा सकते हैं। जब उन्हें अपने बड़े बेटे कर्मचन्द द्वारा पोते परेश के अलग होने की संभावना का पता चलता है तो वह विचलित हो जाते हैं। कहते हैं-“मुझे किसी ने बताया तक नहीं, यदि कोई शिकायत थी तो उसे मिटा देना चाहिए था।” इससे पता चलता है कि दादा जी को परिवार के हर व्यक्ति का ध्यान है । दादा जी एक दार्शनिक व मनोवैज्ञानिक की भाँति बड़े सूझबूझ वाले व्यक्ति हैं, परेश के घर छोडने की बात को लेकर वह कहते हैं-“यदि खरोंच पर तत्काल दवा न लगाई जाए तो वही नासूर बन जाती है फिर लाख मरहम लगाओ घाव ठीक नहीं होता।”
दादाजी शिक्षा व शिक्षितों का सम्मान करते हैं। वह परेश से कहते हैं-“ईश्वर की कृपा से हमारे घर में सुशिक्षित, सुसंस्कृत बहू आई है तो क्या हम अपनी मूर्खता से उसे तंग कर देंगे?” वह नई आयी बहू का सम्मान करना जानते हैं वह इन्दु को समझाते हैं-“बेटी, बड़ा वास्तव में कोई उम्र से नही होता, जड़ा बुद्धि से होता है, योग्यता से होता है।”
दादा जी स्त्रियों का सम्मान करना जानते हैं। जबर्दस्ती किसी पर रौब जमाकर शासन करना नहीं चाहते। वह कहते हैं “छोटी बहू उम्र में न सही अक्ल में हमसे निश्चय ही बड़ी है। हमें चाहिए कि उसकी बुद्धि से, उसकी योग्यता से लाभ उठाएँ।”दावा जी मधुर स्वभाव के हैं। बच्चों से प्यार करते हैं तभी तो इन्दु व छोटे बच्चे उन्हें प्यार करते हैं । वह बाहर खेलते हुए बच्चों को बुलाकर वट के पेड़ की कहानी सुनाना चाहते हैं। बच्चों के जिदद करने पर दादा मूलराज हँसने लगते हैं हमसे पता चलता है कि दादा एकदम तानाशाह तो नहीं है बल्कि सरल व हँसमुख स्वभाव के हैं ।द्वादा जी बेला की मानसिकता समझ जाते हैं और परिवार के सदस्यों को ऐसा व्यवहार करने को कहते हैं जिससे साँप भी मर जाए और लाठी भी न टूटे। इन्दु व घर के लोगों के परिवर्तित व्यवहार से आखिर बेला परशान हो जाती है। इसे लगता है सब उससे अपरिचितों का सा व्यवहार कर रहे हैं । वह इंदु से कहती है- तू मुझे भाभीजी’ कहकर न बुलाया कर और वह आगे कहती है-” मैं तुम सबके साथ मिलकर काम करना चाहती हूँ।” दादाजी इन्दु के साथ बेला को कपड़े थोते देख बेला से कपड़े धोने के लिए मना करते हैं और इन्दु से कहते हैं कि भाभी के साथ आदर से बोला करें तो बेला फूट पड़ती है वह दादा जी से कहती है-“आप पेड़ से किसी डाली का टूटकर अलग होना पसंद नहीं करते, पर क्या आप यह चाहते हैं कि पेड़ से लगी वह डाली सुखकर मुरझा जाए ?” और सिसकने लगती है। अन्त में दादाजी के सिद्धांतों व विचारों की जीत होती है । दादा जो ने परिवार को एकता के सूत्र में बाँध रखा है। परिवार में भिन्न व्यक्तियों के स्वभाव में विभिन्नता होने पर भी दादा जी एक ऐसी डोर हैं जिन्होंने पूरे परिवार को एक कर उसका संचालन किया है, परिवार की डोर उन्हीं के हाथ में है। पूरा परिवार दादा जी का सम्माন करता है, उनके आदेश का पालन करता है। दादा जी गंभीरता से समस्या को सुनते हैं वे निर्णय लेना भी जानते हैं, पर प्रमुख बात है उनके बच्चे व बहुएँ उनका आदर करते हैं ।
दादा जी के चरित्र से सिद्ध होता है कि परिवार के मुखिया को सूझबूझ वाला, साहसी, निष्ठावान, मधुरभाषी होना चाहिए। उसमें सबको एक सूत्र में पिरोने की योग्यता होनी चाहिए जो हम दादा जी के स्वभाव में पाते हैं। दादा जी एक परिपक्व बुद्धि के स्वामी हैं जो एक ऐसा उपाय ढूँढ़ निकालते हैं कि गृहकार्य में सहयोग न करने वाली स्त्री भी घर के कार्यों में स्वेच्छा से सहयोग देने लगती है। दादा जी ने कोमल स्वभाव द्वारा कठोरता को जीतने की बात सिद्ध कर दी है।

बेला –

उपेन्द्रनाथ अश्क जी का नाम हिन्दी साहित्य के प्रमुख एकांकीकारों में बड़े आदर से लिया जाता है। जीवन में जो अशिव और अरुचिपूर्ण है, उसे अनावृत करने का प्रयास किया उनके प्रत्येक । एकांकी में प्रमुख पात्र के मन में तीव्र असंतोष या विषाद का चित्रण हुआ है। सामाजिक एकांकीकारों में घोर यथार्थवाद के चितेरे उपेन्द्रनाथ ‘अश्क’ का नाम सर्वोपरि है। ‘सुखी डाली’ की नायिका बेला है जो इस एकांकी की प्रमुख पात्र है जिसने अपने व्यवहार से पूरे परिवार में हलचल पैदा कर दी है। बेला लाहौर के एक प्रतिष्ठित व सम्पन्न कुल की सुशिक्षित लड़की है जिसके पति नायब तहसीलदार परेश हैं। बेला दादा मूलराज के परिवार की सबसे छोटी बहू है उसके परिवार में आ जाने से तथा परिवार के प्रति विपरीत रवैया होने से परिवार में एक अजीब-सा माहौल छा जाता है। वह प्रथम तो सभी की चर्चा का केन्द्र बन जाती है सभी को उससे कुछ न कुछ शिकायत रहती है। वह अपने को ससुराल में अपरिचित-सा समझती है अतएव तुलना करने पर अपनी माँ के घराने को श्रेष्ठ पाती है और बात-बात पर अपने मायके का बड़प्पन दिखाती है जो उसकी ननद इन्दु को पसन्द नहीं। तभी तो इन्दु शिकायत भरे लहजे में बड़ी बहू से कहती है-“अपने और अपने मायके वालों के सामने तो वह किसी को कुछ गिनती ही नहीं, हम तो उसके लिए मूर्ख, गॅवार और असभ्य हैं।”
बेला तुनकमिजाज है । नौकरानी को घर के काम से हटाये जाने पर जब इंदु उससे कहती है कि “यह मिसरानी यहाँ दस वर्ष से काम कर रही है तो यह तुनककर कहती है-“वह तमीज तो बस आप लोगों को है” तथा गुस्से में कहती है- “वह ढंग मुझे नहीं आता, मैंने तो नौकर यहाँ आकर देखे हैं ।” वह अपने मायके की प्रशंसा करते हुए कहती है-“मेरे मायके में तो ऐसी गँवार मिसरानी दो दिन छोड़ दो घड़ी भी न टिकती ” बेला हाजिरजवाब है, उसके मन में जो भी होता है वह तुरन्त बोल देती है। वह यह नहीं देखती है कि सामने वाले को मेरी बात बुरी लगेगी। तभी तो इन्दु छोटी भाभी के पूछने पर वेला के बारे में कहती है-” वे मीठा कब कहती है जो आज कड़वी कहेंगी।” छोटी भाभी में बचपना है, बड़े घर की होने के कारण उसमें घमण्ड भरा हुआ है वह किसी का सम्मान करना व दूसरों की भावनाओं का आदर करना नहीं जानती। छोटी भाभी चिन्ता में कहती है-“फिर कैसे चलेगा ? हमारे घर में तो मिलकर रहना, बड़ों का आदर करना, नौकरों पर दया और छोटों से प्यार किया जाता है।” और इन गुणों की कमी बेला में है। वह अपने पति परेश का भी आदर नहीं करती। परेश भी परेशान है।मँझली बहू इसी प्रकार की किसी घटना पर हँसती चली जाती है। छोटी भाभी के पूछने पर वह बताती है-“छोटी माँ! अभी-अभी छोटी बहू ने परेश की वह गत बनाई कि बेचारा अपना-सा मुँह लेकर दादा जी के पास भाग गया।”
छोटी बहू बेला एक भावुक स्त्री है। जब घर की सभी स्त्रियाँ आपस में हँस बोल रही हैं लेकिन अचानक बहू के प्रवेश से हँसी के रुक जाने से बहू पर मनोवैज्ञानिक प्रभाव पड़ता है, उसे लगता है मानो उसकी हँसी उड़ायी जा रही है। वह दुःखी होकर परेश से कहती है-“मेरे सामने कोई हँसता नहीं, कोई ऐसे सन्न रह गई जैसे भरी सभा में किसी ने चुप की सीटी बजा दी हो।”अभी-अभी सब हँस रही थीं, ठहाके पर ठहाके मार रही थीं, मैं गई तो सब को साँप सूंघ गया बेला में एक विशेष गुण यह है कि उसे अपनी गलती स्वीकारना आता है। जब उसे इन्दु बताती है कि दादा जी और सब सह सकते हैं पर किसी का पृथक् होना नहीं सह सकते, हम सब एक महान पेड़ की डालियाँ हैं। वे कहा करते हैं-“और इससे पहले कि कोई डाली टूटकर अलग हो, मैं ही इस घर से अलग हो जाऊँगा” तो वह परेशान हो उठती है। वह कहती हैं में आदर नहीं चाहती, मैं तुम सबके साथ मिलकर काम करना चाहती हूँ। बेला अपने अभिमान को त्याग कर इन्दु से कहती है तुम मुझे भाभीजी कहकर मत बुलाया करो।अन्त में हम देखते हैं वह दादा जी की भावनाओं का भी सम्मान करती है। वह दादा जी से कहती हैं-“दादा जी, आप पेड़ से किसी डाली का टूटकर अलग होना पसन्द नहीं करते, पर क्या आप यह चाहेंगे कि पेड़ से लगी-लगी वह डाल सूखकर मुरझा जाए बेला अपने चरित्र द्वारा पाठकों के हृदय में जगह बना लेती है और दुःखान्त नाटक को सुखान्त बनाकर अमिट छाप छोड़ती है। एक आदर्श भारतीय नारी के समान वह संयुक्त परिवार में मिलजुल कर रहना स्वीकार कर लेती है।

प्रश्नोत्तर अभ्यास

“वह तमीज तो बस आप लोगों को है।”

  1. यह वाक्य किसने और किससे कहा हैं ?
  2. वक्ता का परिचय दीजिए।
  3. यह प्रसंग किस समय का है? कौन, किसे बता रहा है ?
  4. इंदु कौन है? वक्ता से उसका क्या सम्बन्ध है ?

उत्तर  – 

१. उपेन्द्रनाथ ‘अश्क’ द्वारा लिखित ‘सूखी डाली’ एकांकी पर प्रसिद्ध नाटक है। यह वाक्य बेला जो घर की छोटी बहू है, ने कहा है । वह एक बड़े घर की लड़की है। उसने घर की दस वर्ष पुरानी मिसरानी को यह कहकर निकाल दिया कि उसे काम करना नहीं आता। तब इन्दु ने उसे समझाया कि “नौकर से काम लेने की तमीज़ होनी चाहिए।” तब बेला ने इन्दु से पलटकर कहा था कि “वह तमीज़ तो बस आप लोगों को है।” यह वाक्य इन्दु बड़ी बहू से कह रही है कि मेरे समझाने पर उसने यह उत्तर दिया था।
२. प्रसिद्ध एकांकीकार द्वारा लिखित ‘सूखी डाली’ एक सफल एकांकी है जिसमें एक संयुक्त परिवार की कहानी है। प्रस्तुत कथन की वक्ता बेला है जो परिवार की सबसे छोटी बहू है। वह लाहौर के एक प्रतिष्ठित तथा सम्पन्न कुल की कन्या है। बला, जिसे सब छोटी बहू कहते हैं, पढ़ी-लिखी है। अभी नई -नई इस घर में आई है और अपने को परिवार के हिसाब से ढाल नहीं पाई है। उसे अपने घराने व शिक्षित होने पर गर्व है। उसका पति परेश नायब तहसीलदार है। इन्दु जो बेला की ननद है इस परिवार की लाड़ली है। उसके और बेला के स्वभाव में अन्तर होने से खटपट रहती है। बेला जो प्रारम्भ में तुनकमिज़ाज व गरवीली दिखाई देती हैं अन्त में दादा जी के विचारों के आगे झुक जाती है और स्वयं को परिवार का ही अंग समझकर उसी परिवार में सबके साथ मिलकर काम करने को तैयार हो जाती है ।
३.दादा मूलराज के परिवार में सब कुछ सामान्य चल रहा था। उनके पोते परेश का विवाह एक उच्च वर्ग की लड़की से हो जाता है जो हर समय अपने घराने को श्रेष्ठ सिद्ध करने की सोचती रहती है। उसके आने से परिवार में हलचल मच जाती है। यह प्रसंग उस समय का है जब उसने वर्षों पुरानी मिसरानी को काम से हटा दिया तो वह रोने लगी। बड़ी बहू आश्चर्यचकित होकर इन्दु से पूछती है कि उसका क्या दोष था? तब इन्दु बड़ी बहू को बताती है कि मैंने बेला को बहुत समझाया कि नौकर से काम लेने की समझ होनी चाहिए तब उसने उत्तर में कहा “वह तमीज़ तो बस आप लोगों को है।”

४ .इन्दु उपेन्द्रनाथ ‘अश्क’ द्वारा लिखित ‘सूखी डाली’ एकांकी की एक प्रमुख पात्र है। वह दादा मूलराज की लाड़ली पोती है। उसने प्राइमरी स्कूल तक शिक्षा प्राप्त की है। वही परिवार में अब तक सबसे अधिक पढ़ी-लिखी समझी जाती है। घर में उसकी चलती भी खूब है। सब उसकी बात मानते है। लेकिन छोटी पतोहू, परेश की पत्नी बेला जो कि ग्रेजुएट है, के आ जाने से हलचल मच जाती है और सबसे अधिक विचलित व परेशान इन्दु ही दिखाई देती है। इन्दु अपने दादा जी को प्यार करती है और उनका सम्मान करती है। तभी तो दादा जी को बेला के बारे में पता चलता है। वह परेशान है तब दादा जी के समझाने पर इन्दु एकदम मान जाती हे और दादा जी से क्षमा माँगते हुए कहती है-“हमे क्षमा कीजिए दादा जी, हमारी ओर से आपको शिकायत का अवसर न मिलेगा।” इन्दु वक्ता की ननद है। वक्ता बेला है जो इन्दु की भाभी है। दादा मूलराज के परिवार की एकलौती पतोहू है। एकांकी के अन्त में हम देखते हैं इन्दु व बेला में आपस में मित्र हो जाती है ।

“काम करने का ढंग उसे आता है, जिसे काम की परख हो।”

(क) उपयुक्त वाक्य किसने किससे कहे हैं? संदर्भ सहित लिखिए।
(ख) वक्ता कौन है? श्रोता पर इस कथन की क्या प्रतिक्रिया हुई?
(ग) इससे वक्ता के किस स्वभाव का पता चलता है? वक्ता के बारे में कुछ पंक्तियाँ लिखिए।
(घ) इस एकांकी के लेखक का परिचय दीजिए।

“इस फर्नीचर पर हमारे दादा बैठते थे, पिता बैठते थे, चाचा बैठते हैं। उन लोगों को कभी शर्म नहीं आई।”

(क) उपर्युक्त वाक्य का प्रसंग लिखिए । यह किस परिस्थिति में कहा गया है?
(ख) प्रस्तुत कथन के वक्ता तथा श्रोता का परिचय दीजिए।
(ग) उन लोगों को कभी शर्म नहीं आई, यह क्या कहा गया है? इसका क्या आशय है?
(घ) बेला का चरित्र चित्रण कीजिए।

“बड़प्पन बाहर की वस्तु नहीं, बड़प्पन तो मन का होना चाहिए।”

(क) उपर्युक्त वाक्य कौन किससे कह रहा है? प्रस्तुत वाक्य किस परिस्थिति में कहा गया है ?
(ख) वक्ता का श्रोता से क्या सम्बन्ध है ?
(ग) वक्ता की चारित्रिक विशेषताओं का संक्षिप्त वर्णन कीजिए।
(घ) प्रस्तुत पंक्ति का आशय स्पष्ट कीजिए।

बड़ा वास्तव में कोई उमर से या दर्जे में नहीं होता। बड़ा तो बुद्धि से होता है, योग्यता से होता है।

(क) प्रस्तुत कथन कोन किससे कह रहा है? यह वाक्य किसके लिए कहा गया है और क्यों ?
(ख) वक्ता ने जिसके विषय में यह वाक्य कहा है उसका वाक्य से क्या सम्बन्ध है ?
(ग) प्रस्तुत कथन से वक्ता की किस चारित्रिक विशेषता का पता चलता है ?
(घ) इस एकांकी के शीर्षक की सार्थकता के बारे में लिखिए।

मेरी आकांक्षा है कि सब डालियाँ साथ साथ फलें फूलें, जीवन की सुखद, शीतल वायु के स्पर्श से सरसाएँ। विटप से अलग होने वाली डाली की कल्पना ही मुझे सिहराती है।

(क) उपयुक्त वाक्य किसने किससे किस संदर्भ में कहे हैं?
(ख) सब डालियाँ साथ साथ फलें फूलें, का क्या आशय है? ‘डालियाँ’ शब्द किसके लिए प्रयुक्त हुआ है ?
(ग) यह किसकी आकांक्षा है कि सब डालियाँ साथ-साथ फलें-फूलें और क्यों? इस एकांकी से आपको क्या शिक्षा मिलती हैं?
(घ) विटप से अलग होने वाली डाली की कल्पना से कौन सिहर उठता है और क्यों?

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मेरे विचार……. दीपक की लौ आकार में भले ही छोटी हो, लेकिन उसकी चमक और रोशनी दूर तक जाती ही है। एक अच्छा शिक्षक वही है जिसके पास पूछने आने के लिए छात्र उसी प्रकार तत्पर रहें जिस प्रकार माँ की गोद में जाने के लिए रहते हैं। मेरे विचार में अध्यापक अपनी कक्षा रूपी प्रयोगशाला का स्वयं वैज्ञानिक होता है जो अपने छात्रों को शिक्षित करने के लिए नव नव प्रयोग करता है। आपका दृष्टिकोण व्यापक है आपके प्रयास सार्थक हैं जो अन्य अध्यापकों को भी प्रेरित कर सकते हैं… संयोग से कुछ ऐसी कार्ययोजनाओं में प्रतिभाग करने का मौका मिला जहाँ भाषा शिक्षण के नवीन तरीकों पर समझ बनी। इस दौरान कुछ नए साथियों से भी मिलना हुआ। उनसे भी भाषा की नई शिक्षण विधियों पर लगातार संवाद होता रहा। साहित्य में रुचि होने के कारण हमने अब शिक्षा से सम्‍बन्धित साहित्य पढ़ना शुरू किया। कोई बच्चा बहुत से लोकप्रिय तरीके से सीखता है तो कोई बच्चा अपने विशिष्ट तरीके से किसी विषय को ग्रहण करता है और अपने तरीके से उस पर अपनी समझ का निर्माण करता है। इसी सन्‍दर्भ में बच्चों के मनोविज्ञान को समझने की जरूरत है। मनोविज्ञान को मानसिक प्रक्रियाओं, अनुभवों और व्यवहार के वैज्ञानिक अध्ययन के रूप में देखा जाता है। इसी नजरिये से शिक्षा मनोविज्ञान को भी क्लासरूम के व्यावहारिक परिदृश्य के सन्‍दर्भ में देखने की आवश्यकता है। यहाँ गौर करने वाली बात है, “स्कूल में बच्चों को पढ़ाते समय केवल कुछ बच्चों पर ध्यान देने से हम बच्चों का वास्तविक आकलन नहीं कर पाते कि वे क्या सीख रहे हैं? उनको किसी बात को समझने में कहाँ दिक्कत हो रही है? किस बच्चे को किस तरह की मदद की जरूरत है। किस बच्चे की क्या खूबी है। किस बच्चे की प्रगति सही दिशा में हो रही है। कौन सा बच्चा लगातार बेहतर प्रदर्शन कर रहा है और उसे आगे बढ़ने के लिए स्वतंत्र रूप से पढ़ने और काम करने के ज़्यादा मौके देने की जरूरत है।” एक शिक्षक को बच्चों के आँसू और बच्चों की खुशी दोनों के लिए सोचना चाहिए। बतौर शिक्षक हम बच्चों के पठन कौशल , समझ निर्माण व जीवन के प्रति एक व्यापक दृष्टिकोण का निर्माण कर रहे होते हैं। अपने व्यवहार से बच्चों की जिंदगी में एक छाप छोड़ रहे होते हैं। ऐसे में हमें खुद को वक्‍त के साथ अपडेट करने की जरूरत होती है। इसके लिए निरन्‍तर पढ़ना, लोगों से संवाद करना, शिक्षा के क्षेत्र में होने वाले भावी बदलावों को समझना बेहद जरूरी है। ताकि आप समय के साथ कदमताल करते हुए चल सकें और भावी नागरिकों के निर्माण का काम ज्यादा जिम्मेदारी और सक्रियता के साथ कर सकें। इस बारे में संक्षेप में कह सकते हैं कि बतौर शिक्षक हमें खुद भी लगातार सीखने का प्रयास जारी रखना चाहिए। आज के शिक्षण-अधिगम प्रक्रिया में सूचना और तकनीक का इस्तेमाल बढ़ गया है। पुस्तक जहाँ पहले ज्ञान का प्रमाणिक स्रोत और संसाधन हुआ करता था आज वहाँ तकनीक के कई साधन मौजूद हैं। आज विद्‌यार्थी किताबों की श्याम-श्वेत दुनिया से बाहर निकलकर सूचना और तकनीक की रंग-बिरंगी दुनिया में पहुँच चुका है, जहाँ माउस के एक क्लिक पर उसे दुनिया भर की जानकारी दृश्य रूप में प्राप्त हो जाती है। एक शिक्षक होने के नाते यह ज़िम्मेदारी होनी चाहिए कि हम समय के साथ खुद को ढालें और शिक्षण-अधिगम प्रक्रिया को सुचारू रूप से गतिशील बनाए रखने के लिए आधुनिक तकनीक के साधनों का भरपूर प्रयोग करें। यदि आप अपनी कक्षा में सूचना और तकनीक का इस्तेमाल करते हुए विद्‌यार्थी-केन्द्रित शिक्षण को प्रोत्साहित करते हैं तो आपकी कक्षा में शैक्षणिक वातावरण का विकास होता है और विद्‌यार्थी अपने अध्ययन में रुचि लेते हैं। यह ब्लॉग एक प्रयास है जिसका उददेश्य है कि इतने वर्षों में हिंदी अध्ययन तथा अध्यापन में जो कुछ मैंने सीखा सिखाया । उसे अपने विद्यार्थियों और मित्रों से साझा कर सकूँ यह विद्यार्थियों तथा हमारे बीच एक अखंड श्रृंखला का कार्य करेगा। मै अपनी ग़ैरमौजूदगी में भी अपने ज़रूरतमंद विद्यार्थियों के बहुत पास रहूँगा …… मेरा प्रयास है कि अपने विद्यार्थी समुदाय तथा कक्षा शिक्षण को मैं आधुनिक तकनीक से जोड़ सकूँ जिससे हर एक विद्यार्थी लाभान्वित हो सके …

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